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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - केवलज्ञान-दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा ५७ यह आक्षेप किया कि तुम्हारे सर्वज्ञ अगर क्रम से सब पदार्थों को जानते हैं तो वे सर्वज्ञ ही कैसे ? और अगर एक साथ सभी पदार्थों को जानते हैं तो एक साथ सब जान लेने के बाद आगे वे क्या जानेंगे ? कुछ भी तो फिर अज्ञात नहीं है । ऐसी दशा में भी वे असर्वज्ञ ही सिद्ध हुए। इस आक्षेप का जवाब दूसरे सर्वज्ञ वादियों की तरह जैनों को भी देना प्राप्त हुआ। इसी तरह बौद्ध आदि सर्वज्ञ वादी भी जैनों के प्रति यह आक्षेप करते रहे होंगे कि तुम्हारे सर्वज्ञ अर्हत् तो क्रम से जानते देखते हैं; अत एव वे पूर्ण सर्वज्ञ कैसे ?। इस आक्षेप का जवाब तो एक मात्र जैनों को ही देना प्राप्त था। इस तरह उपर्युक्त तथा अन्य ऐसे आक्षेपों का जवाब देने की विचारणा में से सर्व प्रथम योगपद्य पक्ष, क्रम पक्ष के विरुद्ध जैन परंपरा में प्रविष्ट हुआ। दूसरा यह भी संभव है कि जैन परंपरा के तर्कशील विचारकों को अपने आप ही क्रम पक्ष में त्रुटि दिखाई दी और उस त्रुटि की पूर्ति के विचार में से उन्हें यौगपद्य पक्ष सर्व प्रथम सूझ पडा । जो जैन विद्वान योगपद्य पक्ष को मान कर उस का समर्थन करते थे उन के सामने क्रम पक्ष मानने वालों का बड़ा आगमिक दल रहा जो आगम के अनेक वाक्यों को ले कर यह बतलाते थे कि यौगपद्य पक्ष का कभी जैन आगम के द्वारा समर्थन किया नहीं जा सकता । यद्यपि शुरू में योगपद्य पक्ष तर्कबल के आधार पर ही प्रतिष्ठित हुआ जान पडता है, पर संप्रदाय की स्थिति ऐसी रही, कि वे जब तक अपने यौगपद्य पक्ष का आगमिक वाक्यों के द्वारा समर्थन न करें और आगमिक वाक्यों से ही क्रम पक्ष मानने वालों को जवाब न दें, तब तक उन के योगपद्य पक्ष का संप्रदाय में आदर होना संभव न था । ऐसी स्थिति देख कर योगपद्य पक्ष के समर्थक तार्किक विद्वान भी आगमिक वाक्यों का आधार अपने पक्ष के लिए लेने लगे तथा अपनी दलीलों को आगमिक वाक्यों में से फलित करने लगे। इस तरह श्वेताम्बर परंपरा में क्रम पक्ष तथा योगपय पक्ष का आगमाश्रित खण्डन-मण्डन चलता ही था कि बीच में किसी को अभेद पक्ष की सूझी। ऐसी सूझ वाला तार्किक योगपद्य पक्ष वालों को यह कहने लगा कि अगर क्रम पक्ष में त्रुटि है तो तुम योगपद्य पक्ष वाले भी उस त्रुटि से बच नहीं सकते। ऐसा कह कर उस ने योगपद्य पक्ष में भी असर्वज्ञत्व आदि दोष दिखाए । और अपने अभेद पक्ष का समर्थन शुरू किया। इस में तो संदेह ही नहीं कि एक बार क्रम पक्ष छोड कर जो यौगपद्य पक्ष मानता है वह अगर सीधे तर्कबल का आश्रय ले तो उसे अभेद पक्ष पर अनिवार्य रूप से आना ही पड़ता है। अभेद पक्ष की सूझ वाले ने सीधे तर्कबल से अभेद पक्ष को उपस्थित कर के क्रम पक्ष तथा यौगपद्य पक्ष का निरास तो किया पर शुरू में सांप्रदायिक लोग उस की बात आगमिक वाक्यों के सुलझाव के सिवाय स्वीकार कैसे करते ? । इस कठिनाई को हटाने के लिए अभेद पक्ष वालों ने आगमिक परिभाषाओं का नया अर्थ भी करना शुरू कर दिया और उन्हों ने अपने अभेद पक्ष को तर्कवल से उत्पन्न कर के भी अंत में आगमिक परिभाषाओं के ढांचे में बिठा दिया। क्रम, योगपद्य और अभेद पक्ष के उपर्युक्त विकास की प्रक्रिया कम से कम १५० वर्ष तक श्वेताम्बर १ देखो, तत्त्वसंग्रह का० ३२४८ से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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