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५८ ज्ञानबिन्दुपरिचय- केवलज्ञान-दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा परंपरा में एक-सी चलती रही । और प्रत्येक पक्ष के समर्थक धुरंधर विद्वान होते रहे, और वे ग्रन्थ भी रचते रहे । चाहे क्रम वाद के विरुद्ध जैनेतर परंपरा की ओर से आक्षेप हुए हों या चाहे जैन परंपरा के आंतरिक चिन्तन में से ही आक्षेप होने लगे हों, पर इस का परिणाम अन्त में क्रमशः योगपद्य पक्ष तथा अभेद पक्ष की स्थापना में ही आया, जिस की व्यवस्थित चर्चा जिनभद्र की उपलब्ध विशेषणवती और विशेषावश्यकभाष्य नामक दोनों कृतियों में हमें देखने को मिलती है।
[६१०२] उपाध्यायजी ने जो तीन विप्रतिपत्तियाँ दिखाई हैं उन का ऐतिहासिक विकास हम ऊपर दिखा चुके । अब उक्त विप्रतिपत्तिओं के पुरस्कर्ता रूप से उपाध्यायजी के द्वारा प्रस्तुत किए गए तीन आचार्यों के बारे में कुछ विचार करना जरूरी है। उपाध्यायजी ने क्रम पक्ष के पुरस्कर्तारूप से जिनभद्र क्षमाश्रमण को, युगपत् पक्ष के पुरस्कर्तारूप से मल्लवादी को और अभेद पक्ष के पुरस्कर्तारूप से सिद्धसेन दिवाकर को निर्दिष्ट किया है । साथ ही उन्हों ने मलयगिरि के कथन के साथ आनेवाली असंगति का तार्किक दृष्टि से परिहार भी किया है। असंगति यों आती है कि जब उपाध्यायजी सिद्धसेन दिवाकर को अभेद पक्ष का पुरस्कर्ता बतलाते हैं तब श्रीमलयगिरि सिद्धसेन दिवाकर को युगपत् पक्ष का पुरस्कर्ता बतलाते हैं । उपाध्यायजी ने असंगति का परिहार यह कह कर किया है कि श्रीमलयगिरि का कथन अभ्युपगम वाद की दृष्टि से है अर्थात् सिद्धसेन दिवाकर वस्तुतः अभेद पक्ष के पुरस्कर्ता हैं पर थोडी देर के लिए क्रम पक्ष का खण्डन करने के लिए शुरू में युगपत् पक्ष का आश्रय कर लेते हैं और फिर अन्त में अपना अभेद पक्ष स्थापित करते हैं । उपाध्यायजी ने असंगति का परिहार किसी भी तरह क्यों न किया हो परंतु हमें तो यहाँ तीनों विप्रतिपत्तियों के पक्षकारों को दर्साने वाले सभी उल्लेखों पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करना है।
हम यह ऊपर बतला चुके हैं कि क्रम, युगपत् और अभेद इन तीनों वादों की चर्चावाले सब से पुराने दो ग्रन्थ इस समय हमारे सामने हैं जो दोनों जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण की ही कृति हैं। उन में से, विशेषावश्यक भाष्य में तो चर्चा करते समय जिनभद्रने पक्षकाररूप से न तो किसी का विशेष नाम दिया है और न 'केचित्' 'अन्ये' आदि जैसे शब्द ही निर्दिष्ट किए हैं। परंतु विशेषणवती में तीनों वादों की चर्चा शुरू करने के पहले जिनभद्र ने 'केचित् शब्द से युगपत् पक्ष प्रथम रखा है, इस के बाद 'अन्ये' कह कर क्रम पक्ष रखा है, और अंत में 'अन्ये' कह कर अभेद पक्षका निर्देश किया है। विशेषणवती की उन की स्वोपज्ञ व्याख्या नहीं है इस से हम यह नहीं कह सकते हैं कि जिनभद्रको 'केचित्' और 'अन्ये' शब्द से उस उस वाद के पुरस्कर्ता रूप से कौन कौन आचार्य अभिप्रेत थे।
१ देखो, नंदी टीका पृ० १३४ । २“केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा। अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुओवएसेणं ॥ १८४ ॥ अण्णे ण चेव वीसुं दसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स । जे चिय केवलणाणं तं चिय से दरिसणं बिंति ॥१८५॥"
-विशेषणवती।
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