________________
५६
ज्ञान बिन्दुपरिचय - केवलज्ञान- दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा
है । इतने बडे अन्तर में रचा गया कोई ऐसा श्वेताम्बरीय ग्रन्थ अभी उपलब्ध नहीं है जिस में कि यौगपद्य तथा अभेद पक्ष की चर्चा या परस्पर खण्डन - मण्डन हो' । पर हम जब विक्रमीय सातवीं सदी में हुए जिनभद्र क्षमाश्रमण की उपलब्ध दो कृतियों को देखते हैं तब ऐसा अवश्य मानना पडता है कि उनके पहले श्वेताम्बर परंपरा में योगपद्य पक्ष की तथा अभेद पक्ष की, केवल स्थापना ही नहीं हुई थी, बल्कि उक्त तीनों पक्षों का परस्पर खण्डन-मण्डन वाला साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में बन चुका था । जिनभद्र गणिने अपने अति विस्तृत 'विशेषावश्यकभाष्य' ( गा०३०९० से ) में क्रमिक पक्ष का आगमिकों की ओर से जो विस्तृत स-तर्क स्थापन किया है उस में उन्होंने यौगपद्य तथा अभेद पक्षका आगमानुसरण करके विस्तृत खण्डन भी किया है । तदुपरान्त उन्हों ने अपने छोटे से 'विशेषणवती' नामक ग्रन्थ ( गा० १८४ से) में तो, विशेषावश्यकभाष्य की अपेक्षा भी अत्यन्त विस्तार से अपने अभिमत क्रमपक्ष का स्थापन तथा अनभिमत यौगपद्य तथा अभेद पक्ष का खण्डन किया है । क्षमाश्रमण की उक्त दोनों कृतियों में पाए जाने वाले खण्डन- मण्डनगत पूर्वपक्ष - उत्तरपक्ष की रचना तथा उसमें पाई जानेवाली अनुकूल प्रतिकूल युक्तियों का ध्यानसे निरीक्षण करने पर किसी को यह मानने में सन्देह नहीं रह सकता कि क्षमाश्रमण के पूर्व लम्बे अर्से से श्वेताम्बर परंपरा में उक्त तीनों पक्षों के मानने वाले मौजुद थे और वे अपने अपने पक्ष का समर्थन करते हुए विरोधी पक्षका निरास भी करते थे। यह क्रम केवल मौखिक ही न चलता था बल्कि शास्त्रबद्ध भी होता रहा । वे शास्त्र आज भले ही मौजूद न हों पर क्षमाश्रमण के उक्त दोनों ग्रन्थों में उन का सार देखने को आज भी मिलता है । इस पर से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जिनभद्र के पहले भी श्वेताम्बर परंपरा में उक्त तीनों पक्षों को मानने वाले तथा परस्पर खण्डनमण्डन करने वाले आचार्य हुए हैं । जब कि कम से कम जिनभद्र के समय तक में ऐसा कोई दिगम्बर विद्वान नहीं हुआ जान पडता कि जिस ने क्रम पक्ष या अभेद पक्ष का खण्डन किया हो । और दिगंबर विद्वान की ऐसी कोई कृति तो आज तक भी उपलब्ध नहीं है जिस में यौगपद्य पक्ष के अलावा दूसरे किसी भी पक्ष का समर्थन हो ।
जो कुछ हो पर यहाँ यह प्रश्न तो पैदा होता ही है कि प्राचीन आगमों के पाठ सीधे तौर से जब क्रम पक्ष का ही समर्थन करते हैं तब जैन परंपरा में यौगपद्य पक्ष और अभेद पक्ष का विचार क्यों कर दाखिल हुआ । इस का जवाब हमें दो तरह से सूझता है । एक तो यह कि जब असर्वज्ञ वादी मीमांसक ने सभी सर्वज्ञ वादियों के सामने
1
१ नियुक्ति में " सव्वस्स केवलिस्स वि ( पाठान्तर 'स्सा') जुगवं दो नत्थि उवओगा" - गा० ९७९ - यह अंश पाया जाता है जो स्पष्टरूपेण केवलि में माने जानेवाले यौगपद्य पक्ष का ही प्रतिवाद करता है । हमने पहले एक जगह यह संभावना प्रकट की है कि नियुक्ति का अमुक भाग तत्त्वार्थ भाष्यके बाद का भी संभव है । अगर वह संभावना ठीक है तो नियुक्ति का उक्त अंश जो यौगपद्य पक्ष का प्रतिवाद करता है वह भी तत्त्वार्थ भाष्य के यौगपद्यप्रतिपादक मन्तव्य का विरोध करता हो ऐसी संभावना की जा सकती है। कुछ भी हो, पर इतना तो स्पष्ट है कि श्रीजिनभद्र गणि के पहले यौगपद्य पक्ष का खण्डन हमें एक मात्र नियुक्ति के उक्त अंशके सिवाय अन्यत्र कहीं अभी उपलब्ध नहीं; और निर्युक्ति में अभेद पक्ष के खण्डन का तो इशारा भी नहीं 1
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org