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ज्ञानबिन्दुपरिचय - केवलज्ञान-दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा ५५ बतलाया होगा । अगर हमरा यह अनुमान ठीक है तो ऐसा मान कर चलना चाहिए कि किसी ने तत्त्वार्थभाष्य के उक्त उल्लेख की युगपत् परक भी व्याख्या की थी, जो आज उपलब्ध नहीं है । 'नियमसार' ग्रन्थ जो दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द की कृति समझा जाता है उस में स्पष्ट रूप से एक मात्र यौगपद्य पक्षका (गा० १५९) ही उल्लेख है। पूज्यपाद देवनन्दी ने भी तत्त्वार्थ सूत्र की व्याख्या 'सर्वार्थसिद्धि मैं एक मात्र युगपत् पक्षका ही निर्देश किया है । श्रीकुंदकुंद और पूज्यपाद दोनों दिगंबरीय परंपरा के प्राचीन विद्वान हैं और दोनों की कृतियों में एकमात्र योगपद्य पक्ष का स्पष्ट उल्लेख है । पूज्यपाद के उत्तरवर्ति दिगम्बराचार्य समन्तभद्रने भी अपनी 'आप्तमीमांसा' में एकमात्र यौगपद्य पक्ष का उल्लेख किया है। यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि कुन्दकुन्द, पूज्यपाद
और समन्तभद्र-इन तीन्हों ने अपना अभिमत योगपद्य पक्ष बतलाया है; पर इनमें से किसी ने योगपद्यविरोधी क्रमिक या अभेद पक्ष का खण्डन नहीं किया है । इस तरह हमें श्रीकुन्दकुन्द से समन्तभद्र तक के किसी भी दिगंबराचार्य की, कोई ऐसी कृति, अभी उपलब्ध नहीं है जिसमें क्रमिक या अभेद पक्ष का खण्डन हो । ऐसा खण्डन हम सब से पहले अकलंक की कृतियों में पाते हैं। भट्ट अकलंक ने समन्तभद्रीय आप्तमीमांसा की 'अष्टशती व्याख्या में योगपद्य पक्ष का स्थापन करते हुए क्रमिक पक्ष का, संक्षेप में पर स्पष्ट रूपमें, खण्डन किया है और अपने 'राजवार्तिक" भाष्य में तो क्रम पक्ष माननेवालों को सर्वज्ञनिन्दक कह कर उस पक्ष की अग्राह्यता की ओर संकेत किया है । तथा उसी राजवार्तिक में दूसरी जगह (६.१०.१४-१६) उन्हों ने अभेद पक्ष की अग्राह्यता की ओर भी स्पष्ट ईशारा किया है। अकलंक ने अभेद पक्ष के समर्थक सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क नामक ग्रन्थ में पाई जानेवाली दिवाकर की अभेद विषयक नवीन व्याख्या (सन्मति २.२५) का शब्दशः उल्लेख कर के उस का जवाब इस तरह दिया है कि जिस से अपने अभिमत युगपत् पक्ष पर कोई दोष न आवे और उस का समर्थन भी हो। इस तरह हम समूचे दिगम्बर वाङ्मय को लेकर जब देखते हैं तब निष्कर्ष यही निकलता है कि दिगम्बर परंपरा एकमात्र यौगपद्य पक्षको ही मानती आई है और उस में अकलंक के पहले किसी ने क्रमिक या अभेद पक्ष का खण्डन नहीं किया है, केवल अपने पक्ष का निर्देश मात्र किया है।
अब हम श्वेताम्बरीय वाङ्मय की ओर दृष्टिपात करें। हम ऊपर कह चुके हैं कि तत्त्वार्थभाष्य के पूर्ववर्ति उपलब्ध आगमिक साहित्य में से तो सीधे तौर से केवल क्रमपक्ष ही फलित होता है। जब कि तत्त्वार्थभाष्य के उल्लेख से युगपत् पक्ष का बोध होता है। उमास्वाति और जिनभद्र क्षमाश्रमण-दोनों के बीच कम से कम दो सौ वर्षों का अन्तर
१ "साकारं ज्ञानमनाकारं दर्शनमिति । तत् छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते । निरावरणेषु युगपत् ।" सर्वार्थ०, १.९ ।
तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥" आप्तमी०, का. १०१। ३“तज्ज्ञानदर्शनयोः क्रमवृत्तौ हि सर्वज्ञवं कादाचित्कं स्यात् । कुतस्तत्सिद्धिरिति चेत् सामान्य विशेषविषययोर्विगतावरणयोरयुगपत् प्रतिभासायोगात् प्रतिबन्धकान्तराभावात्"-अष्टशती-अष्टसहस्त्री, पृ. २८१। ४राजवार्तिक. ६.१३.८ ।
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