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ज्ञानबिन्दुपरिचय - जैनधर्म की अहिंसा का स्वरूप
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सके। ऐसा विरोध इन्कार कर दिया ।
यही है कि शास्त्र - वेद ही मुख्य प्रमाण है और यज्ञ आदि कर्म वेदविहित हैं । अतएव जो यज्ञ आदि कर्म को करना चाहे या जो वेद को मानता है उस के वास्ते वेदाज्ञा का पालन ही परम धर्म है, चाहे उस के पालन में जो कुछ करना पडे । मीमांसकों का यह तात्पर्यनिर्णय आज भी वैदिक परंपरा में एक ठोस सिद्धान्त है । सांख्य आदि जैसे यज्ञीय हिंसा के विरोधी भी वेद का प्रामाण्य सर्वथा न त्याग देने के कारण अंत में मीमांसकों के उक्त तात्पर्यार्थ निर्णय का आत्यंतिक विरोध कर न आखिर तक वे ही करते रहे जिन्हों ने वेद के प्रामाण्य का सर्वथा ऐसे विरोधिओ में जैन परंपरा मुख्य है । जैन परंपरा ने वेद के प्रामाण्य के साथ वेदविहित हिंसा की धर्म्यता का भी सर्वतोभावेन निषेध किया । पर जैन परंपरा का भी अपना एक उद्देश्य है जिस की सिद्धि के वास्ते उस के अनुयायी गृहस्थ और साधु का जीवन आवश्यक है। इसी जीवनधारण में से जैन परंपरा के सामने भी ऐसे अनेक प्रश्न समय समय पर आते रहे जिन का अहिंसा के आत्यन्तिक सिद्धान्त के साथ समन्वय करना उसे प्राप्त हो जाता था । जैन परंपरा वेद के स्थान में अपने आगमों को ही एक मात्र प्रमाण मानती आई है; और अपने उद्देश की सिद्धि के वास्ते स्थापित तथा प्रचारित विविध प्रकार के गृहस्थ और साधु जीवनोपयोगी कर्तव्यों का पालन भी करती आई है । अतएव अन्त में उस के वास्ते भी उन स्वीकृत कर्तव्यों में अनिवार्य रूप से हो जाने वाली हिंसा का समर्थन भी एक मात्र आगम की आज्ञा के पालन रूप से ही करना प्राप्त है । जैन आचार्य इसी दृष्टि अपने आपवादिक हिंसा मार्ग का समर्थन करते रहे ।
आचार्य हरिभद्र ने चार प्रकार के वाक्यार्थ बोध को दर्शाते समय अहिंसाहिंसा के उत्सर्ग - अपवादभाव का जो सूक्ष्म विवेचन किया है वह अपने पूर्वाचार्यों की परंपराप्राप्त संपत्ति तो है ही पर उस में उन के समय तक की विकसित मीमांसाशैली का भी कुछ न कुछ असर है । इस तरह एक तरफ से चार वाक्यार्थबोध के बहाने उन्हों ने उपदेशपद में मीमांसा की विकसित शैली का, जैन दृष्टि के अनुसार संग्रह किया; तब दूसरी तरफ से उन्हों ने बौद्ध परिभाषा को भी ' षोडशक" में अपनाने का सर्व प्रथम प्रयत्न किया । धर्मकीर्ति के 'प्रमाणवार्तिक' के पहले से भी बौद्ध परंपरा में विचार विकास की क्रम प्राप्त तीन भूमिकाओं को दर्शानेवाले श्रुतमय, चिंतामय और भावनामय ऐसे तीन शब्द बौद्ध वाङ्मय में प्रसिद्ध रहे । हम जहाँ तक जान पाये हैं कह सकते हैं कि आचार्य हरिभद्रने ही उन तीन बौद्धप्रसिद्ध शब्दों को ले कर उन की व्याख्या में वाक्यार्थबोध के प्रकारों को समाने का सर्वप्रथम प्रयत्न किया । उन्हों ने षोडशक में परिभाषाएँ तो बौद्धों की लीं पर उन की व्याख्या अपनी दृष्टि के अनुसार की; और श्रुतमय को वाक्यार्थ ज्ञानरूप से, चिंतामय को महावाक्यार्थ ज्ञानरूप से और भावनामय को ऐदम्पर्यार्थ ज्ञानरूप से घटाया । स्वामी विद्यानन्द ने उन्हीं बौद्ध परिभाषाओं का 'तच्चार्थ
१ षोडशक १.१० ।
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