SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८ ज्ञानबिन्दुपरिचय-जैनधर्म की अहिंसा का स्वरूप भी न जीवित रह सकते हैं और न धर्माचरण ही कर सकते हैं। इन प्रश्नों का जवाब देने की दृष्टि से ही हरिभद्र ने जैन संमत अहिंसास्वरूप समझाने के लिए चार प्रकार के वाक्यार्थ बोध के उदाहरण रूप से सर्व प्रथम अहिंसा के प्रश्न को ही हाथ में लिया है। ___ दूसरा प्रश्न निर्ग्रन्थत्व का है। जैन परंपरा में ग्रन्थ - वस्त्रादि परिग्रह रखने न रखने के बारे में दलभेद हो गया था। हरिभद्र के सामने यह प्रश्न खास कर दिगम्बरत्वपक्षपातिओं की तरफ से ही उपस्थित हुआ जान पडता है । हरिभद्र ने जो दान का प्रश्न उठाया है वह करीब करीब आधुनिक तेरापंथी संप्रदाय की विचारसरणी का प्रतिबिम्ब है । यद्यपि उस समय तेरापंथ या वैसा ही दूसरा कोई स्पष्ट पंथ न था; फिर भी जैन परंपरा की निवृत्तिप्रधान भावना में से उस समय भी दान देने के विरुद्ध किसी किसी को विचार आ जाना स्वाभाविक था जिसका जवाब हरिभद्र ने दिया है। जैनसंमत तप का विरोध बौद्ध परंपरा पहले से ही करती आई है । उसी का जबाब हरिभद्र ने दिया है। इस तरह जैन धर्म के प्राणभूत सिद्धान्तों का स्वरूप उन्हों ने उपदेशपद में चार प्रकार के वाक्यार्थबोध का निरूपण करने के प्रसंग में स्पष्ट किया है जो याज्ञिक विद्वानों की अपनी हिंसा-अहिंसा विषयक मीमांसा का जैन दृष्टि के अनुसार संशोधित मार्ग है। __ भिन्न भिन्न समय के अनेक ऋषिओं के द्वारा सर्वभूतदया का सिद्धान्त तो आर्यवर्ग में बहुत पहले ही स्थापित हो चुका था; जिसका प्रतिघोष है - 'मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि'यह श्रुतिकल्प वाक्य । यज्ञ आदि धर्मों में प्राणिवध का समर्थन करनेवाले मीमांसक भी उस अहिंसाप्रतिपादक प्रतिघोष को पूर्णतया प्रमाण रूप से मानते आए हैं। अतएव उन के सामने भी अहिंसा के क्षेत्र में यह प्रश्न तो अपने आप ही उपस्थित हो जाता था। तथा सांख्य आदि अर्ध वैदिक परंपराओं के द्वारा भी वैसा प्रश्न उपस्थित हो जाता था कि जब हिंसा को निषिद्ध अतएव अनिष्टजननी तुम मीमांसक भी मानते हो तब यज्ञ आदि प्रसंगों में, की जाने वाली हिंसा भी, हिंसा होने के कारण अनिष्टजनक क्यों नहीं ?। और जब हिंसा के नाते यज्ञीय हिंसा भी अनिष्ट जनक सिद्ध होती है तब उसे धर्म काइष्टका निमित्त मान कर यज्ञ आदि कर्मों में कैसे कर्तव्य माना जा सकता है । इस प्रश्न का जवाब बिना दिए. व्यवहार तथा शास्त्र में काम चल ही नहीं सकता था। अतएव पुराने समय से याज्ञिक विद्वान् अहिंसा को पूर्णरूपेण धर्म मानते हुए भी, बहुजनस्वीकृत और चिरप्रचलित यज्ञ आदि कर्मों में होने वाली हिंसा का धर्म - कर्तव्य रूप से समर्थन, अनिवार्य अपवाद के नाम पर करते आ रहे थे। मीमांसकों की अहिंसा-हिंसा के उत्सर्ग-अपवादभाववाली चर्चा के प्रकार तथा उस का इतिहास हमें आज भी कुमारिल तथा प्रभाकरके ग्रन्थों में विस्पष्ट और मनोरंजक रूप से देखने को मिलता है। इस बुद्धिपूर्ण चर्चा के द्वारा मीमांसकों ने सांख्य, जैन, बौद्ध आदि के सामने यह स्थापित करने का प्रयत्न किया है कि शास्त्रविहित कर्म में की जाने वाली हिंसा अवश्यकर्तव्य होने से अनिष्ट -अधर्म का निमित्त नहीं हो सकती । मीमांसकों का अंतिम तात्पर्य १ देखो, मज्झिमनिकाय सुत्त. १४ । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy