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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय- अहिंसा का स्वरूप और विकास श्लोकवार्तिक' में खंडन' किया, जब कि हरिभद्र ने उन परिभाषाओं को अपने ढंग से जैन वाङ्मय में अपना लिया। उपाध्यायजी ने ज्ञानबिन्दु में हरिभद्रवर्णित चार प्रकार का वाक्यार्थबोध, जिस का पुराना इतिहास, नियुक्ति के अनुगम में तथा पुरानी वैदिक परंपरा आदि में भी मिलता है; उस पर अपनी पैनी नैयायिक दृष्टि से बहुत ही मार्मिक प्रकाश डाला है, और स्थापित किया है कि ये सब वाक्यार्थ बोध एक दीर्घ श्रुतोपयोग रूप हैं जो मति उपयोग से जुदा है । उपाध्यायजी ने ज्ञानबिन्दु में जो वाक्यार्थ विचार संक्षेप में दरसाया है वही उन्हों ने अपनी 'उपदेश रहस्य' नामक दूसरी कृति में विस्तार से किन्तु 'उपदेशपद' के साररूप से निरूपित किया है जो आगे संस्कृत टिप्पण में उद्धृत किया गया है । - देखो टिप्पण, पृ० ७४. पं० २७ से । (४) अहिंसा का स्वरूप और विकास [२१] उपाध्यायजी ने चतुर्विध वाक्यार्थ का विचार करते समय ज्ञानबिन्दु में जैन परंपरा के एक मात्र और परम सिद्धान्त अहिंसा को ले कर, उत्सर्ग-अपवादभाव की जो जैन शास्त्रों में परापूर्व से चली आने वाली चर्चा की है और जिस के उपपादन में उन्हों ने अपने न्याय-मीमांसा आदि दर्शनान्तर के गंभीर अभ्यास का उपयोग किया है, उस को यथासंभव विशेष समझाने के लिए, आगे टिप्पण में [पृ० ७९ पं० ११ से] जो विस्तृत अवतरणसंग्रह किया है उस के आधार पर, यहाँ अहिंसा संबंधी कुछ ऐतिहासिक तथा तात्त्विक मुद्दों पर प्रकाश डाला जाता है। अहिंसा का सिद्धान्त आर्य परंपरा में बहुत ही प्राचीन है । और उस का आदर सभी आर्यशाखाओं में एकसा रहा है। फिर भी प्रजाजीवन के विस्तार के साथ साथ तथा विभिन्न धार्मिक परंपराओं के विकास के साथ साथ, उस सिद्धान्त के विचार तथा व्यवहार में भी अनेकमुखी विकास हुआ देखा जाता है। अहिंसा विषयक विचार के मुख्य दो स्रोत प्राचीन काल से ही आर्य परंपरा में बहने लगे ऐसा जान पड़ता है। एक स्रोत तो मुख्यतया श्रमण जीवन के आश्रयसे बहने लगा, जब कि दूसरा स्रोत ब्राह्मण परंपराचतुर्विध आश्रम-के जीवनविचार के सहारे प्रवाहित हुआ। अहिंसा के तात्त्विक विचार में उक्त दोनों स्रोतों में कोई मतभेद देखा नहीं जाता । पर उस के व्यावहारिक पहलू या जीवनगत उपयोग के बारे में उक्त दो स्रोतों में ही नहीं बल्कि प्रत्येक श्रमण एवं ब्राह्मण स्रोत की छोटी बड़ी अवान्तर शाखाओं में भी, नाना प्रकार के मतभेद तथा आपसी विरोध देखे जाते हैं। तात्त्विक रूप से अहिंसा सब को एकसी मान्य होने पर भी उस के व्यावहारिक उपयोग में तथा तदनुसारी व्याख्याओं में जो मतभेद और विरोध देखा जाता है उस का प्रधान कारण जीवनदृष्टि का भेद है। श्रमण परंपरा की जीवनदृष्टि प्रधानतया वैयक्तिक और आध्यात्मिक रही है, जब कि ब्राह्मण परंपरा की जीवनदृष्टि प्रधानतया सामाजिक या लोकसंग्राहक रही है । पहली में लोकसंग्रह तभी १ देखो, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पृ० २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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