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________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय - ज्ञानकी सामान्य चर्चा आदि अनेक कर्मावरणों को मानता है। पर उस के मतानुसार चित्त का वह आवरण मात्र संस्काररूप' फलित होता है जो की द्रव्यस्वरूप नहीं है। न्याय आदि दर्शनों के अनुसार भी ज्ञानावरण-अज्ञान, ज्ञानगुण का प्रागभाव मात्र होने से अभावरूप ही फलित होता है. द्रव्यरूप नहीं । जब कि सांख्य, वेदान्त के अनुसार आवरण जड़ द्रव्यरूप अवश्य सिद्ध होता है। सांख्य के अनुसार बुद्धिसत्त्व का आवारक तमोगुण है जो एक सूक्ष्म जड़ द्रव्यांश मात्र है। वेदान्त के अनुसार भी आवरण-अज्ञान नाम से वस्तुतः एक प्रकार का जड़ द्रव्य ही माना गया है जिसे सांख्य-परिभाषा के अनुसार प्रकृति या अन्तःकरण कह सकते हैं । वेदान्त ने मूल-अज्ञान और अवस्था अज्ञान रूप से या मूलाविद्या और तुलाविद्या रूप से अनेकविध आवरणों की कल्पना की है जो जड़ द्रव्यरूपं ही हैं। जैन परंपरा तो ज्ञानावरण कर्म हो या दूसरे कर्म-सब को अत्यन्त स्पष्ट रूप से एक प्रकार का जड़ द्रव्य बतलाती है । पर इस के साथ ही वह अज्ञान-रागद्वेषात्मक परिणाम, जो आत्मगत है और जो पौद्गलिक कर्मद्रव्य का कारण तथा कार्य भी है, उस को भावकर्म रूप से बौद्ध आदि दर्शनों की तरह संस्कारात्मक मानती है। - जैनदर्शनप्रसिद्ध ज्ञानावरणीय शब्द के स्थान में नीचे लिखे शब्द दर्शनान्तरों में प्रसिद्ध हैं । बौद्धदर्शन में अविद्या और ज्ञेयावरण । सांख्य-योगदर्शन में अविद्या और प्रकाशावरण । न्याय-वैशेषिक-वेदान्त दर्शन में अविद्या और अज्ञान । ४. [पृ० २. पं० ३] आवृतत्व और अनावृतत्व परस्पर विरुद्ध होने से किसी एक वस्तु में एक साथ रह नहीं सकते और पूर्वोक्त प्रक्रिया के अनुसार तो एक ही चेतना एक समय में केवलज्ञानावरण से आवृत भी और अनावृत भी मानी गई है, सो कैसे घर सकेगा? इस का जवाब उपाध्यायजी ने अनेकान्तं दृष्टि से दिया है। उन्हों ने कहा है कि यद्यपि चेतना एक ही है फिर भी पूर्ण और अपूर्ण प्रकाशरूप नाना ज्ञान उसके पर्याय हैं। जो कि चेतना से कथञ्चित् भिन्नाभिन्न हैं । केवलज्ञानावरण के द्वारा पूर्ण प्रकाश के आवृत होने के समय ही उसके द्वारा अपूर्ण प्रकाश अनावृत भी है। इस तरह दो भिन्न पर्यायों में ही आवृतत्व और अनावृतत्व है जो कि पर्यायार्थिक दृष्टि से सुघट है। फिर भी जब द्रव्यार्थिक दृष्टि की विवक्षा हो, तब द्रव्य की प्रधानता होने के कारण, पूर्ण और अपूर्ण ज्ञानरूप पर्याय, द्रव्यात्मक चेतना से भिन्न नहीं । अत एव उस दृष्टि से उक्त दो पर्यायगत आवृतत्व-अनावृतत्व को एक चेतनागत मानने और कहने में कोई विरोध नहीं । उपाध्यायजी ने द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक दृष्टि का विवेक सूचित करके आत्मतत्त्व का जैन दर्शन सम्मत परिणामित्व स्वरूप प्रकट किया है जो कि केवल नित्यत्व या कूटस्थत्ववाद से भिन्न है। ५.[५] उपाध्यायजी ने जैन दृष्टि के अनुसार 'आवृतानावृतत्व' का समर्थन ही नहीं किया बल्कि इस विषय में वेदान्त मत को एकान्तवादी मान कर उस का खण्डन भी किया है । जैसे वेदान्त ब्रह्म को एकान्त कूटस्थ मानता है वैसे ही सांख्य-योग भी पुरुष १ स्याद्वादर०, पृ० ११०१। २ देखो, स्याद्वादर०, पृ० ११०३। ३ देखो, विवरणप्रमेयसंग्रह, पृ. २१; तथा न्यायकुमुदचन्द्र, पृ०८०६। ४ वेदान्तपरिभाषा, पृ. ७२ । ५ गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गा०६।, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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