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ज्ञान बिन्दुपरिचय - ज्ञानकी सामान्य चर्चा
को एकान्त कूटस्थ अत एव निर्लेप, निर्विकार और निरंश मानता है । इसी तरह न्याय आदि दर्शन भी आत्मा को एकान्त नित्य ही मानते हैं । तब ग्रन्थकार ने एकान्तवाद में 'आवृतानावृतत्व' की अनुपपत्ति सिर्फ वेदान्त मत की समालोचना के द्वारा ही क्यों दिखाई ? अर्थात् उन्होंने सांख्ययोग आदि मतों की भी समालोचना क्यों नहीं की ? - यह प्रश्न अवश्य होता है । इस का जवाब यह जान पडता है कि केवलज्ञानावरण के द्वारा 'चेतना की 'आवृतानावृतत्व' विषयक प्रस्तुत चर्चा का जितना साम्य ( शब्दतः और अर्थतः ) वेदान्तदर्शन के साथ पाया जाता है उतना सांख्य आदि दर्शनों के साथ नहीं । जैन दर्शन शुद्ध चेतनतत्त्व को मान कर उस में केवलज्ञानावरण की स्थिति मानता है और उस चेतन को उस केवल ज्ञानावरण का विषय भी मानता है । जैनमतानुसार केवलज्ञानावरण चेतनतत्त्व में ही रह कर अन्य पदार्थों की तरह स्वाश्रय चेतन को भी आवृत करता है जिस से कि स्व- परप्रकाशक चेतना न तो अपना पूर्ण प्रकाश कर पाती है और न अन्य पदार्थों का ही पूर्ण प्रकाश कर सकती है । वेदान्त मत की प्रक्रिया भी वैसी ही है । वह भी अज्ञान को शुद्ध चिद्रूप ब्रह्म में ही स्थित मान कर उसे उस का विषय बतला कर, कहती है कि अज्ञान ब्रह्मनिष्ठ हो कर ही उसे आवृत करता है जिस से कि उस का 'अखण्डत्व' आदि रूप से तो प्रकाश नहीं हो पाता, तब भी चिद्रूप से प्रकाश होता ही है । जैन प्रक्रिया के शुद्ध चेतन और केवलज्ञानावरण तथा वेदान्त प्रक्रिया के चिद्रूप ब्रह्म और अज्ञान पदार्थ में, जितना अधिक साम्य है उतना शाब्दिक और आर्थिक साम्य, जैन प्रक्रिया का अन्य सांख्य आदि प्रक्रिया के साथ नहीं है । क्यों कि सांख्य या अन्य किसी दर्शन की प्रक्रिया में अज्ञान के द्वारा चेतन या आत्मा के आवृतानावृत होने का वैसा स्पष्ट और विस्तृत विचार नहीं है, जैसा वेदान्त प्रक्रिया में है । इसी कारण से उपाध्यायजी ने जैन प्रक्रिया का समर्थन करने के बाद उसके साथ बहुत अंशों में मिलती जुलती वेदान्त प्रक्रिया का खण्डन किया है पर दर्शनान्तरीय प्रक्रिया के खण्डन का प्रयत्न नहीं किया ।
उपाध्यायजी ने वेदान्त मत का निरास करते समय उस के दो पक्षों का पूर्वपक्ष रूप से उल्लेख किया है । उन्हों ने पहला पक्ष विवरणाचार्यका [ ६५ ] और दूसरा वाचस्पति मिश्र का [ ६ ] सूचित किया है । वस्तुतः वेदान्त दर्शन में वे दोनों पक्ष बहुत पहले से प्रचलित हैं । ब्रह्म को ही अज्ञान का आश्रय और विषय मानने वाला प्रथम पक्ष, सुरेश्वराचार्य की 'नैष्कर्म्यसिद्धि' और उनके शिष्य सर्वज्ञात्ममुनि के 'संक्षेपशारीरकवार्त्तिक' में, सविस्तर वर्णित है । जीव को अज्ञान का आश्रय और ब्रह्म को उस का विषय मानने वाला दूसरा पक्ष मण्डन मिश्र का कहा गया है। ऐसा होते हुए भी उपाध्यायजी ने पहले पक्ष को विवरणाचार्य - - प्रकाशात्म यति का और दूसरेको वाचस्पति मिश्र का सूचित किया है; इस का कारण खुद वेदान्त दर्शन की वैसी प्रसिद्धि है । विवरणाचार्यने सुरेश्वरके मत का समर्थन किया और वाचस्पति मिश्र ने मण्डन मिश्रके मत का । इसी से वे दोनों पक्ष क्रमशः विवरणाचार्य और वाचस्पति मिश्र के प्रस्थानरूप से प्रसिद्ध हुए । उपाध्यायजी ने इसी प्रसिद्धि के अनुसार उल्लेख किया है ।
१ देखो, टिप्पण पृ० ५५ पं० २५ से ।
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