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ज्ञानबिन्दुपरिचय - ज्ञानकी सामान्य चर्चा - २. उपाध्यायजी ने फिर बतलाया है कि ज्ञान पूर्ण भी होता है और अपूर्ण भी। यहां यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जब आत्मा चेतनस्वभाव है तब उस में ज्ञान की कभी अपूर्णता
और कभी पूर्णता क्यों ? इसका उत्तर देते समय उपाध्यायजी ने कर्मस्वभाव का विश्लेषण किया है । उन्होंने कहा है कि [६२ ] आत्मा पर एक ऐसा भी आवरण है जो चेतनाशक्ति को पूर्णरूप में कार्य करने नहीं देता। यही आवरण पूर्ण ज्ञान का प्रतिबन्धक होने से केवलज्ञानावरण कहलाता है। यह आवरण जैसे पूर्ण ज्ञान का प्रतिबन्ध करता है वैसे ही अपूर्ण ज्ञान का जनक भी बनता है । एक ही केवलज्ञानावरणको पूर्ण ज्ञान का तो प्रतिबन्धक और उसी समय अपूर्ण ज्ञान का जनक भी मानना चाहिए । - अपूर्ण ज्ञान के मति श्रुत आदि चार प्रकार हैं । और उन के मतिज्ञानावरण आदि चार आवरण भी पृथक पृथक माने गये हैं। उन चार आवरणों के क्षयोपशम से ही मति आदि चार अपूर्ण ज्ञानों की उत्पत्ति मानी जाती है । तब यहां, उन अपूर्ण ज्ञानों की उत्पत्ति केवलज्ञानावरण से क्यों मानना ? ऐसा प्रश्न सहज है। उसका उत्तर उपाध्यायजी ने शास्त्रसम्मत [३३] कह कर ही दिया है, फिर भी वह उत्तर उन की स्पष्ट सूझ का परिणाम है; क्यों कि इस उत्तर के द्वारा उपाध्यायजी ने जैन शास्त्र में चिर प्रचलित एक पक्षान्तर का सयुक्तिक निरास कर दिया है। वह पक्षान्तर ऐसा है कि-जब केवलज्ञानावरण के क्षय से मुक्त आत्मा में केवल ज्ञान प्रकट होता है, तब मतिज्ञानावरण आदि चारों आवरण के क्षय से केवली में मति आदि चार ज्ञान भी क्यों न माने जाय ? इस प्रश्न के जवाब में, कोई एक पक्ष कहता है कि- केवली में मति आदि चार ज्ञान उत्पन्न तो होते हैं पर वे केवल ज्ञान से अभिभूत होने के कारण कार्यकारी नहीं । इस चिरप्रचलित पक्ष को नियुक्तिक सिद्ध करने के लिए उपाध्यायजी ने एक नयी युक्ति उपस्थित की है किअपूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञानावरण का ही कार्य है, चाहे उस अपूर्ण ज्ञान का तारतम्य या वैविध्य मतिज्ञानावरण आदि शेष चार आवरणों के क्षयोपशम वैविध्य का कार्य क्यों न हो, पर अपूर्ण ज्ञानावस्था मात्र पूर्ण ज्ञानावस्था के प्रतिबन्धक केवलज्ञानावरण के सिवाय कभी संभव ही नहीं। अत एव केवली में जब केवलज्ञानावरण नहीं है तब तजन्य कोई भी मति आदि अपूर्ण ज्ञान केवली में हो ही कैसे सकते हैं । सचमुच उपाध्यायजी की यह युक्ति शास्त्रानुकूल होने पर भी उनके पहले किसी ने इस तरह स्पष्ट रूपसे सुझाई नहीं है।
३. [४] सघन मेघ और सूर्य प्रकाश के साथ केवलज्ञानावरण और चेतनाशक्ति की शास्त्रप्रसिद्ध तुलना के द्वारा उपाध्यायजी ने ज्ञानावरण कर्म के स्वरूप के बारे में दो बातें खास सूचित की हैं । एक तो यह, कि आवरण कर्म एक प्रकार का द्रव्य है; और दूसरी यह, कि वह द्रव्य कितना ही निबिड - उत्कट क्यों न हो, फिर भी वह अति स्वच्छ अभ्र जैसा होने से अपने आवार्य ज्ञान गुण को सर्वथा आवृत कर नहीं सकता । ... कर्म के स्वरूप के विषय में भारतीय चिन्तकों की दो परंपराएं हैं। बौद्ध, न्याय दर्शन आदि की एक; और सांख्य, वेदान्त आदि की दूसरी है । बौद्ध दर्शन क्लेशावरण, ज्ञेयावरण १ देखो, तत्त्वसंग्रहपंजिका, पृ० ८६९ ।
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