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________________ संपादकीय वक्तव्य गया है। उस में मुख्य और गौण विषय के कोई भी शीर्षक तो हैं ही नहीं । विषय विभाग भी मुद्रण में नहीं किया गया है । फिर भी उस मुद्रित नकल से हमें बहुत कुछ मदद मिली है । यह प्रति अधिकांश अ, ब संज्ञक दोनों प्रतियों के समान है । 9 (२-३ ) 'अ, ब ' - अ और ब संज्ञक दोनों प्रतियां स्व० मुनि महाराज श्री हंस विजयजी के बड़ौदा स्थित ज्ञान संग्रह में की - क्रमशः ३५ और ६३५ नंबर की हैं । प्रायः दोनों प्रतियां समान हैं । पाठों में जो फर्क आया है वह लेखकों की अनभिज्ञता का परिणाम जान पड़ता है । संभव है इन दोनों प्रतियों का आधारभूत आदर्श असल में एक ही हो । अ संज्ञक प्रति के पत्र ५१ हैं । प्रत्येक पत्र में पंक्तियां १० और अक्षर संख्या लगभग ४१ है । इसकी लंबाई १२३ ईंच और चौडाई ५ ईंच है । पत्र के दोनों पार्श्व में करीब एक एक ईंच का हाँशिया है । प्रति के आदि में 'श्रीसर्वज्ञाय नमः' ऐसा लिखा है । हुआ 'ब' संज्ञक प्रति के ३३ पत्र हैं । प्रत्येक पत्र में पंक्तियाँ १३ हैं और प्रत्येक पंक्ति में लगभग अक्षर ४० हैं । इसकी लंबाई १० ईंच और चौडाई ४३ ईंच है । पत्र के दोनों पार्श्व में करीब एक एक ईंच का हाँशिया है। प्रति के अन्त में एक संस्कृत पद्य लिखा हुआ है जिससे ज्ञात होता है कि महामुनि श्री विजयानन्दसूरि के शिष्य लक्ष्मीविजय के शिष्य श्री हंस विजयजी के उपदेश से यह प्रति लिखी गई है । तदनन्तर प्रति का लेखन काल भी अंत में दिया गया है, जो इस प्रकार है - 'संवति १९५५ वर्षे शाके १८२० प्रवर्तमाने मार्गशीर्ष शुक्ल दले ६ तिथौ अर्कवारे' इत्यादि । ( ४ ) 'त' - त संज्ञक प्रति पाटण के तपागच्छ भाण्डार की है । वह उक्त दोनों प्रतियों से प्राचीन भी है, और अधिक शुद्ध भी । इस में कुछ ऐसी भी पंक्तियाँ हैं जो अ, ब संज्ञक प्रतियों में बिलकुल नहीं हैं । फिर भी ये पंक्तियाँ संदर्भ की दृष्टि से संगत हैं । 'त' प्रति के पत्र ३२ हैं । प्रत्येक पत्र में पंक्तियाँ १३ और प्रत्येक पंक्ति में अक्षर करीब ५८ हैं । इसकी लंबाई १० ईंच और चौडाई ४ ईंच है । प्रत्येक पत्र के दोनों पार्श्व में एक एक ईचका हाँशिया है । इस प्रति के अंत में प्रशस्ति के ९ श्लोक पूर्ण होने के बाद इस प्रकार का उल्लेख है - इति श्री ज्ञानविन्दुप्रकरणं । संवत् युगरसशैलशशीवत्सरे शाकेंकनेत्ररसचन्द्र प्रवर्तमाने फाल्गुनमासे कृष्णपक्षे दशमीतिथौ भृगुवासरे संपूर्ण कृतं । श्रीरस्तु । कल्याणमस्तु । शुभं भवतु लेखकपाठकयो भद्रवती-भवतात् । छ । श्री । श्री । श्री । इस लेख के अनुसार यह प्रति शक संवत् १६२९ और विक्रम संवत् १७६४ में लिखी गई है । जो उपाध्यायजी के स्वर्गवास (विक्रम संवत् १७४३) के २१ वर्ष बाद की लिखी हुई है । यही कारण है कि इस प्रति के पहले आदर्शोंका वंश विस्तृत न हुआ था । अतएव इस का संबंध मूल आदर्शसे अधिक होने के कारण इसमें अशुद्धि भी बहुत कम हैं । * For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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