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________________ ज्ञानबिन्दु आभार प्रदर्शन__ ऊपरनिर्दिष्ट तीनों प्रतियां हमें वयोवृद्ध प्रवर्तक पूज्यपाद श्री कान्तिविजयजी के प्रशिष्य उदारचेता विद्वान् मुनिवर श्री पुण्यविजयजी के अनुग्रहसे प्राप्त हुई हैं । पं० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्य ने बहुत श्रम और लगन से टिप्पणों की अधिकांश सामग्री संचित कर दी है और समय समय पर उन्हों ने विषयपरामर्श में भी सहायता की है । महामहोपाध्याय पं० बालकृष्ण मिश्र, प्रिन्सीपल, प्राच्य विद्याविभाग, काशी विश्वविद्यालय, ने हमें जब काम पडा तब संदेहनिवृत्ति करने में या विषय समझने में आत्मीयभाव से मदद दी है । प्रस्तुत ग्रन्थमाला के मुख्य संपादक विश्रुत इतिहासकोविद श्री जिनविजयजी मुनि ने प्रस्तुत संस्करण के प्रारंभ से अन्त तक में न केवल उपयोगी सूचनाएँ ही की हैं बल्कि इन्हों ने पाठान्तर लेने, प्रूफ देखने-सुधारने आदि में भी बहुमूल्य मदद की है । वस्तुतः इन्हीं की चिरकालीन सौम्य प्रेरणा और प्रोत्साहन ने ही यह कार्य पूरा कराया है। प्रस्तुत ग्रन्थमाला के प्रतिष्ठाता श्रीमान् बाबू बहादुर सिंहजी सिंघी की विद्यारसिकता और साहित्यप्रियता के कारण ही इतना कीमती संस्करण भी सरलता से तैयार हो पाया है । अतएव हम ऊपर निर्दिष्ट सभी महानुभावों के हृदय से कृतज्ञ हैं। उपसंहार मैं जैसा अनेक बार पहले भी लिख चुका हूं, और अब भी निःसंकोच लिखता हूं कि अगर पूरी सहानुभूति तथा कार्यतत्परता मेरे इन सहृदय सहकारियों में न होती तो मेरी अल्प-खल्प शक्ति भी अकिञ्चित्कर ही रह जाती । अतएव मैं अपनी शक्ति का इस रूप में उपयोग कर लेने के कारण दोनों सहकारियों का कृतज्ञ हूँ। पाठकों को शायद आश्चर्य होगा कि ऐसे दार्शनिक ग्रन्थ के संस्करण के सम्पादकों की नामावली में एक भगिनी का भी नाम है। पर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । जिनके पुण्य स्मरणार्थ यह सिंघी जैन ग्रन्थमाला प्रस्थापित है, उन्हीं खर्गवासी साधुचरित डालचन्दजी सिंघी ने, खुद ही अपनी इस दौहित्री श्रीमती हीरा कुमारी को धार्मिक शिक्षा देना प्रारम्भ किया था और आगे संस्कृत तथा दार्शनिक शिक्षा दिलाने का सुप्रबन्ध भी किया था, जो श्रीमान् बाबू बहादुर सिंहजी सिंघीने तथा उन की पूजनीया वृद्धा माताजी ने आगे बराबर चालू रखा । दौहित्री हीरा कुमारी की यह आकांक्षा रही कि वह अध्ययन के फल खरूप कुछ-न-कुछ काम कर के, अपने पूज्य मातामह की पुण्यस्मारक ग्रन्थमाला द्वारा उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करे । इसी आशय से वह समय समय पर काशी आ कर काम सीखती और करती हैं । यदि कोई विशेष प्रत्यवाय न आया तो उपाध्यायजी का ही एक अन्य सर्वथा अप्रसिद्ध और दुर्लभ ऐसा अनेकान्तव्यवस्था नामक ग्रन्थ, जो प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु से भी बड़ा और गहरा है उसे, श्रीयुत मालवणिया के सहयोग संपादित कर, इसी ग्रन्थमाला के एक और मूल्यवान् मणिके रूपमें निकट भविष्यमें प्रकशित करना चाहती है। बनारस ॥ ता. ३०-११-४१४ -सुखलाल संघवी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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