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________________ संपादकीय वक्तव्य २. टिप्पण-मूल ग्रन्थ के बाद टिप्पण छपे हैं । टिप्पण अनेक दृष्टियों से तैयार हुए हैं या संग्रह किए गए हैं। इनमें एक दृष्टि तो है परिभाषा के स्पष्टीकरण की । सारा मूल ग्रन्थ दार्शनिक परिभाषाओं से भरा पड़ा है । हमें जहाँ मालूम पड़ा कि यहां इस परिभाषा का विशेष खुलासा करना जरूरी है और वैसा खुलासा अन्य ग्रन्थों में मिलता है, तो वहाँ हमने उन ग्रन्थान्तरों से ही इतना भाग टिप्पणों में दे दिया है जिस से मूल ग्रन्थ में आई हुई परिभाषा कुछ और भी स्पष्ट हो जाय; तथा साथ ही पाठकों को ऐसे ग्रन्थान्तरों का परिचय भी मिल जाय । दूसरी दृष्टि है आधारभूत ग्रन्थों का दिग्दर्शन कराने की । ग्रन्थकार ने जिन जिन ग्रन्थों का परिशीलन करके प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है वे सब ग्रन्थ उस के आधार भूत हैं। किसी भी विषय की चर्चा करते समय ग्रन्थकार ने या तो ऐसे आधारभूत ग्रन्थों में से आवश्यक भाग शब्दशः या थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ लिया है, या कहीं संक्षेप कर के लिया है; कहीं उन्हों ने उस ग्रन्थ का उपयुक्त भाग अपनी जरूरत के अनुसार क्रम बदल करके भी लिया है । यह सारी वस्तुस्थिति पाठकों को ज्ञात हो तथा आधारभूत उन उन ग्रन्थों का विस्तृत परिचय भी हो, इस दृष्टि से हमने जगह जगह टिप्पणों में जरूरी महत्त्व का भाग दिया है । पर जहाँ प्रष्ठ के पृष्ठ आधारभूत ग्रन्थों के एक साथ मिलते हैं वहाँ, बहुधा उन आधारभूत ग्रन्थों का स्थान ही सूचित कर दिया है, जिस से अभ्यासी खुद ही ऐसे आधारभूत ग्रन्थ देख सकें और ज्ञानबिन्दुगत उस स्थान की चर्चा को विशेष रूप से समझ सकें । तीसरी दृष्टि इतिहास और तुलना की है । ग्रन्थकार ने कहीं अमुक चर्चा की हो और वहाँ हमें उस चर्चित विषय की कोई ऐतिहासिक सामग्री, थोड़ी बहुत, मिल गई तो, हमने उस विषय का, ऐतिहासिक दृष्टि से कैसा विकास हुआ है यह समझाने के लिए वह प्राप्त सामग्री टिप्पणों में दे दी है । कई जगह, ग्रन्थकार के द्वारा की जानेवाली चर्चा दूसरे ग्रन्थों में किस किस रूपमें पाई जाती है यह तुलना करने के लिए भी टिप्पण दिए हैं, जिस से अभ्यासी चर्चा को ऐतिहासिक क्रमसे तुलनापूर्वक समझ सके और गहराई तक पहुंच सके । चौथी दृष्टि है ग्रन्थकार के सूचनों को संपूर्ण बनाने की । अनेक जगह चर्चा करते हुए ग्रन्थकार, अमुक हद तक लिख कर फिर विशेष विस्तार से देखने वालों के लिए सूचना मात्र कर देते हैं, कि यह विषय अमुक अमुक ग्रन्थों से देख लेना । ऐसे स्थानों में ग्रन्थकार के द्वारा नामनिर्देश पूर्वक सूचित किए गए ग्रन्थों में से तथा उन के द्वारा असूचित पर हमारे अवलोकन में आए हुए ग्रन्थों में से जरूरी भाग, टिप्पणों में संग्रह किए हैं। टिप्पणों के बारे में संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि ज्ञानबिन्दु की संस्कृत में टीका न लिख कर भी उसे अनेक दृष्टि से अधिकाधिक समझाने के लिए तथा अध्येता और अध्यापक के वास्ते ज्ञान बिन्दु की उपादानभूत विशालतर सामग्री प्रस्तुत करने के लिए ही ये टिप्पण विशेष श्रमसे संग्रह किए गए हैं। कहीं कहीं हमने अपनी ओर से भी कुछ लिखा है। ३. परिशिष्ट-टिप्पणों के बाद छह परिशिष्ट छपे हैं, जो ज्ञानबिन्दु तथा उसके टिप्पणों से संबंध रखते हैं । परिशिष्टों में क्या क्या है वह सब उन के ऊपर दिए गए शीर्षकों से ही स्पष्ट है । परिशिष्टों की उपयोगिता अनेक दृष्टियों से है जिसके समझाने की इस युग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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