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________________ ज्ञानबिन्दु काम करने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी भी था। ई० स० १९३९ में बाकी का काम सहयोगी श्रीयुत दलसुख मालवणियाने शुरू किया। इस बीच में सहृदय मुनि श्री पुण्यविजयजीने एक और लिखित प्रति भेजी, जिस की हमने त संज्ञा रखी है । यह प्रति प्रथम की दो प्रतियों से अनेक स्थानों में पाठभेद वाली भी थी और विशेष शुद्ध भी। इस लिए पुनः इस प्रति के साथ मिलान शुरू किया और प्रथम स्थिर किए गए पाठान्तरों के स्थानों में बहुत कुछ परिवर्तन मी किया। यह सब काम क्रमशः चलता ही था, पर अनुभवने कहा कि जब ज्ञानबिन्दु कॉलेजों के पाठ्यक्रम में है और आगे इस का प्रचार करना इष्ट है तब इस का अध्यापन मी करा देना चाहिए जिस से एक सुनिश्चित परंपरा स्थिर हो जाय । । उक्त अनुभव के आधार पर ज्ञानबिन्दु का अध्यापन भी शुरू हुआ। श्रीमालवणिया और श्रीमती हीरा कुमारी-जो सिंघी जैन ग्रन्थमाला के स्थापक श्रीमान् बाबू बहादुर सिंहजी की भागिनेयी है-ये ही दोनों मुख्यतया अध्येता थे। ये ही दोनों इस का संपादन करने वाले थे, इस लिए अध्ययन के साथ ही साथ दोनों ने आवश्यक सुधार भी किया और नई नई कल्पना के अनुसार इन्होंने और भी सामग्री एकत्र की । यद्यपि मैं पहले एक बार ज्ञानबिन्दु को, मेरे एक आचार्य-परीक्षार्थी शिष्य को पढ़ा चुका था परन्तु इस समय का अध्यापन अनेक कारणों से अधिक अर्थ पूर्ण था। एक तो यह कि अब ग्रन्थ छपने को जाने वाला था। दूसरा यह कि पढने वाले दोनों स्थिरबुद्धी, व्युत्पन्न और संपादन कार्य करने वाले थे। फलतः जितना हो सका उतना इस ग्रन्थ की शुद्धि तथा स्पष्टता के लिए प्रयत्न किया गया। श्री मालवणियाने टिप्पणयोग्य कच्ची सामग्री को सुव्यवस्थित कर लिया । और मुद्रण कार्य ई० स० १९४० में शुरू हुआ । १९४१ में श्रीमती हीरा कुमारीने परिशिष्ट तैयार किए और मैं प्रस्तावना लिखने की ओर झुका । १९४१ के अन्त के साथ ही यह सारा काम पूरा होता है । इस तरह १९१४ में जो संस्कार सूक्ष्मरूप में मन पर पड़ा था वह इतने वर्षों के बाद मूर्तरूप धारण कर, आज सिंघी जैन ग्रन्थ माला के एक मणिरूप में जिज्ञासुओं के संमुख उपस्थित होता है। संस्करण का परिचय- ... ... १. मूल ग्रन्थ- प्रस्तुत संस्करण में मुख्य वस्तु है ज्ञानबिन्दु मूलग्रन्थ । इस का जो पाठ तैयार किया गया है वह चार प्रतियों के आधार पर से है, जिन का परिचय हम आगे कराएंगे। किसी भी एक प्रति के आधार से सारा मूल पाठ तैयार न कर के सब प्रतियों के पाठान्तर संगृहीत कर, उन में से जहाँ जोपाठ अधिक शुद्ध और विशेष उपयुक्त मालूम पड़ा वह वहाँ रख कर, अन्य शेष पाठान्तरों को नीचे टिप्पणी में दे कर मूल पाठ तैयार किया गया है। अर्थदृष्टि से विषयों का विभाग तथा उनके शीर्षक भी हमने किए हैं । लिखित या पहले की मुद्रित प्रति. में वैसा कुछ न था । ग्रन्थकारने ज्ञानबिन्दु में मूल ग्रन्थ के नाम पूर्वक या विना नाम दिए जो जो उद्धरण दिए हैं उन सब के मूल स्थान यथा संभव ऐसे [ ] कोष्ठक में दिए गए हैं । जहाँ काम में लाई गई चारों प्रतियों के आधार से भी ठीक पाठशुद्धि न हो सकी, और हमें भाषा, विचार, प्रसंग या अन्य साधन से शुद्ध पाठ सूझ पडा वहाँ हमने वह पाठ ऐसे ( ) कोष्ठक में संनिविष्ट किया है और प्रतियों में से प्राप्त पाठ ज्यों का त्यों रखा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
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