SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संपादकीय वक्तव्य ॐ प्रारंभ और पर्यवसान - ई० स० १९१४ में जब मैं महेसाणा (गुजरात) में कुछ साधुओं को पढ़ाता था तब मेरा ध्यान प्रस्तुत ज्ञानबिन्दु की ओर विशेष रूप से गया । उस समय मेरे सामने जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर की ओर से प्रकाशित 'न्यायाचार्य श्रीयशोविजयजीकृत ग्रन्थमाला' अन्तर्गत पत्राकार ज्ञानबिन्दु था । ज्ञानबिन्दु की विचारसूक्ष्मता और दार्शनिकता देख कर मन में हुआ कि यह ग्रन्थ पाठ्यक्रम में आने योग्य है । पर इस के उपयुक्त संस्करण की भी जरूरत है । यह मनोगत संस्कार वर्षों तक यों ही मनमें पड़ा रहा और समय समय पर मुझे प्रेरित भी करता रहा । अन्त में ई० स० १९३५ में अमली कार्य का प्रारंभ हुआ । इस की दो अ और ब संज्ञक लिखित प्रतियाँ विद्वान् मुनिवर श्री पुण्यविजयजी के अनुग्रह से प्राप्त हुईं । और काशी में १९३५ के ऑगस्ट में, जब कि सिंघी जैनग्रन्थ माला के संपादक श्रीमान् जिनविजयजी शान्तिनिकेतन से लौटते हुए पधारे, तब उनकी मदद से उक्त दो लिखित और एक मुद्रित कुल तीन प्रतियों का मिलान कर के पाठान्तर लिख लिए गए । ई० स० १९३६ के जाड़े में कुछ काम आगे बढ़ा । ग्रन्थकारने ज्ञानबिन्दु में जिन ग्रन्थों का नाम निर्देश किया है या उद्धरण दिया है तथा जिन ग्रन्थों के परिशीलन से उन्होंने ज्ञानबिन्दु को रचा है उन सब के मूल स्थल एकत्र करने का काम, कुछ हद तक, पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य के द्वारा उस समय संपन्न हुआ । इसके बाद ई० स० १९३७ तक में, जब जब समय मिला तब तब, प्रथम लिए गए पाठान्तर और एकत्र किए गए ग्रन्थों के अवतरणों के आधार पर, पाठशुद्धि का तथा विषय विभाग शीर्षक आदि का काम होता रहा । साथ में अन्य लेखन, संपादन और अध्यापन आदि के काम उस समय इतने अधिक थे कि ज्ञानबिन्दु का शेष कार्य यों ही रह गया । Jain Education International ई० स० १९३८ के पुनर्जन्म के बाद, जब मैं फिर काशी आया तब पुराने अन्यान्य अधूरे कामों को समाप्त करने के बाद ज्ञानबिन्दु को ही मुख्य रूपसे हाथ में लिया । अमुक तैयारी तो हुई थी पर हमारे सामने सवाल था संस्करण के रूप को निश्चित करने का । कुछ मित्र बहुत दिनों से कहते आए थे कि ज्ञानबिन्दु के ऊपर संस्कृत टीका भी होनी चाहिए । कुछ का विचार था कि अनुवाद होना जरूरी है । टिप्पण के बारे में भी प्रश्न था कि वे किस प्रकार के लिखे जाँय । क्या प्रमाणमीमांसा के टिप्पणों की तरह हिन्दी में मुख्यतया लिखे जाँय या संस्कृत में ? । इन सब प्रश्नों को सामने रख कर अन्त में हमने समय की मर्यादा तथा सामग्री का विचार कर के स्थिर किया कि अभी अनुवाद या संस्कृत टीका के लिए जरूरी अवकाश न होने से वह तो स्थगित किया जाय । हिन्दी तुलनात्मक टिप्पण अगर लिखते तो संभव है कि यह ग्रन्थ अभी प्रेसमें मी न जाता । अंत में संस्करण का वही स्वरूप स्थिर हुआ जिस खरूप यह आज पाठकों के संमुख उपस्थित हो रहा है । ऊपर कहा जा चुका है कि टिप्पण योग्य अमुक सामग्री तो पहले ही से संचित की हुई पडी थी; पर टिप्पण का ठीक-ठीक पूरा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002518
Book TitleGyanbindu Prakarana
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1942
Total Pages244
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy