SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संक्षिप्त सारार्थ । १५ किया - और श्रीविजयसिंहसूरिजी को सं० १६८४ पौष शुदि छठके रोज वंदन करके संघसमक्ष भट्टारकरूपसे घोषित किया तथा अपना सर्वाधिकारित्व उन्हें समर्पण कर दिया । प्रस्तुत वंदना - महोत्सव निमित्त मंत्री जयमल्लने बडी उदारताके साथ खूब धन खर्च किया, खूब दान दिया और साधर्मिकोंको मिष्टान्न भोजनादिके द्वारा खूब प्रसन्न किए । वहांसे अब सूरिजीने मारवाड देशकी तरफ विहार किया । यहां पर चंद्रशाखीय, रुचिशाखीय और हंसशाखीय मुनियोंने मारवाडमें पधारते हुए सूरिजीका बडा सन्मान किया । सूरिजी के प्रभावसे मारवाडका दुर्भिक्ष नष्ट हुआ, अच्छी दृष्टि हुई, और वह शुष्क प्रदेश भी नदीमातृक हो गया । मारवाड में घूम कर धर्मका प्रचार करने के बाद अब सूरिजी का प्रयाण मेवाडदेशकी तरफ हुआ । मेवाडका महाराजा श्रीजगत्सिंह, सूरिजीको वंदन करनेको आया । आचार्यजीने राजा जगत्सिंहको अहिंसाधर्मका बोध दिया और सूरिजीके उस बोधसे उसने मेवाडके बडे बडे सरोवर पछोला और उदयसागर में मत्स्योंका मारना रोक दिया। मेवाडसे सूरिजी गुजरातदेशमें आए । गुजरात में दो वर्ष बिताकर सूरिजी विमलाचलकी यात्राके लिए सोरठदेश ( काठीयावाड ) तरफ पधारे। वहांसे अज्झाहरपार्श्वनाथकी यात्राको गए। वहांसे अपने गुरु श्रीहीरविजयजीकी समाधिके दर्शनार्थ सूरिजी उन्नतपुर (ऊना) गामको गए । सूरिजी के वंदन के लिए दीवबंदरसे बहुत लोग ऊनाको आए । ऊना में चातुर्मास पूरा करके सूरिजीने देवपतन तरफ विहार किया । वीरविजय नामक मुनि सूरिजीका विशेष रीतिसे उपासक था और उसमें सद्गुणों का आविर्भाव देख कर उसके प्रति सूरिजीका अधिक प्रेम रहता था । देवपत्तनसे सूरिजी गिरनारकी यात्राको गए । [४] बडी श्रद्धा और भक्ति से सूरिजीने रेवतक तीर्थका दर्शन किया । गिरनारसे सूरिजी जामवंशीय देवराजके नवानगरको पधारे। वहांसे सूरिजी सिद्धाचलकी यात्राको पधारे । सिद्धाचलकी यात्रा करके सूरिजीने दक्षिणदेश तरफ जानेके संकल्पसे सूरत तरफ विहार किया । सूरत में आनेके बाद वहांके राजभवन में सागरपक्षी - के साथ सूरिजी शास्त्रार्थ किया और विजयश्री प्राप्त की । सूरत में शास्त्रार्थमें प्राप्त विजय श्रीका स्मारक भी बना । एक ऐसा स्थान बना जहां सूरिजी और उनके परिवार के ही यतिगण ठहर सकते हैं और अन्य कोई वहां नहीं ठहर सकता। यह ही स्थान उक्त विजयका स्मारक था । सूरिजीने सूरतको छोड़कर अब दक्षिण तरफ विहार किया । मार्गमें कई भक्त श्रावक-श्राविकएं भी सेवाके लिए साथ चलतीं थीं। उनमें चतुरांबाई प्रमुख अनेक श्राविकाएं सूरि की बहुत भक्तिमती थीं । विहार करते करते सूरिजी बगलांणा (बागलाण) के पास पहुंचे । बागलाण पर्वतकी चोटी पर बसा था । वहां शाहजादा औरंगजेब का शासन था । वहांसे सूरिजीने शाहपुर जाकर उसके उपवन में चातुर्मास किया । शाहजादेने सूरिजीका बडा गौरव किया और अपने शासित प्रदेशमें जीवरक्षाके लिए पक्की व्यवस्था की । अब सूरिजी संघके साथ तीर्थाटन के लिए चले । मार्ग में कलिकुंडपार्श्वनाथ तीर्थका और करहेडपार्श्वनाथ तीर्थका सूरिजीने दर्शन किया । [५] देवचंद्र श्रावकने यात्रादिकी विधि में अग्रभाग लिया और उदारतासे धनका खर्च भी किया। वहां से सूरिजी पहाडके पास बसे हुए औरंगाबाद में आए। वहांसे अंतरिक्षपार्श्वनाथ की यात्राको गए। वहांसे बर्हानपुर (बुरानपुर) को पहुंचे। वहांसे मल्लिकापुर (मलकापुर ) जाकर और फिर अंतरिक्षपार्श्वनाथकी यात्रा कर सूरिजी तिलिंग (तैलंग) देशको गए। रास्ते में भाग्यनगरीके संघने सूरिजीका स्वागत करके बडी आवभगत की । चलते चलते सूरिजी आदिनाथ भगवानके तीर्थ श्रीकुलपाकजीको पहुंचे । कुल्लपाकतीर्थ के आदिनाथका प्रसिद्धनाम माणिक्यदेव है । यह माणिक्यदेवकी मूर्ति जटासे सुशोभित है । वहांपर श्रीअमरचंद्र मुनिको वाचक पद दिया और चतुरांबाईने बडा १ “चतुर्भिरधिकैर्वर्षैर्वर्षेऽशीतितमे शुभे । षोडशस्य शतस्यादि षष्ठे पौषसितस्य हि” ॥ ३६३ ॥ - विजयदेवमाहात्म्य, सर्ग ९ ।
SR No.002517
Book TitleDevananda Mahakavya
Original Sutra AuthorMeghvijay
AuthorBechardas Doshi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1937
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy