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देवानन्दमहाकाव्य |
बिहार कॅरते हुए दिल्लीको पहुंचे । धर्म-चर्चा और वार्ता - विनोद से सूरिजीने बादशाहको प्रमोदित किया । सूरिजी की तपप्रधान उम्र क्रियाओंसे विशेष प्रसन्न होकर बादशाहने सूरिजीको 'महातपा का बिरुद दिया । बादशाह के सन्मानसे सूरिजी के विपक्षी - कुपक्षी लोक श्याममुख हो गये ।
[ ३ ] अब विहार करते करते सूरिजी ईडर को आए । वहांके राजा कल्याणमल्लने ईडर आए हुए सूरिजी का बडा स्वागत किया और सूरिजी के प्रवेशोत्सव में भी अग्र भाग लिया। ईडरके चतुर्विध संघ में सर्वत्र आनंदका उल्लास छा गया। ईडर का राजमंत्री सहजू श्रेष्ठी सूरिजी का उपासक था और बडा धनाढ्य था । सहजू शाहने सूरिजी के पास आकर भक्तिविनम्र शब्दो में कहा कि 'गुरुजी ! आपके पधारनेसे आपकी जन्मभूमि धन्य हुई है । आपके पूर्वज बडे धार्मिक थे । गुरुजी ! अब आपको मेरी विनंती है कि आप अपने योग्य शिष्यको ईडर में अपना पट्टधर बनाकर - अर्थात् आचार्यपद देकर ईडरनगरको विशेष धन्य कीजिए। आपके होनहार पट्टधरके आचार्यपदका उत्सव करनेकी मेरी बडी तीव्र भावना है' । सूरिजीने, सहजू शाहकी बात ध्यानपूर्वक सुनी और यथासमय उसकी भावना पूर्ण करने को कहा ।
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ईडर आनेके पूर्व ही सूरिजीने अपने योग्य शिष्यको पाठक याने उपाध्याय पद, सं० १६७३ माघमास के शुक्ल पक्षमें उत्तम दिन आनेपर, पाटणमें ही दे दिया था । उपाध्याय कनकविजय प्रकांड पंडित थे । उपाध्याय होने के पूर्व ही मुनि क्रेनकविजय अपने गुरुसे चौदह विद्या पढ चूके थे, उपांगसमेत एकादशांगीका अवगाहन कर चूके थे और चौदह पूर्वोका (?) भी अध्ययन कर सारे जैन प्रवचनके पारगामी बन चूके थे। ईडर के पास साबली नामका ग्राम है, वहां जीवहिंसाकी अधिक प्रवृत्तिको देखकर वहांके श्रावक रत्नसिंह पारखने सूरिजी से सावली आनेकी विनंती की; और कहा कि - 'आपके आने से सावलीमें चलती हुई जीवहिंसा रुक जायगी और जैन धर्मकी महिमा भी होगी' । सूरिजी सावली आए और वहांके ठाकुरको प्रतिबोधित कर जीवहिंसाको रुकवा दी। वहांसे फिर सूरिजी ईडर को पधारे। ईडरके" नाकरशाह के पुत्र शाह सहजूने आचार्य - पदका बडी धामधूमके साथ उत्सव किया और सूरिजी ने अपने शिष्य उपाध्याय श्रीकनकविजयको सं० १६८२ वैशाख शुदि छठके दिन आचार्य पद देकर अपना पट्टधर बनाया और उसका नाम विजयसिंहमुरि प्रकट किया । अब दोनों सूरिजी महाराज - अर्थात् श्रीविजयदेवसूरि और श्रीविजयसिंहरि दोनों गुरुशिष्य - ईडरसे विहार करके सीरोहिका ( शीरोही) नगरको पहुंचे, तब पुंजा - शाहके पुत्र पोरवाडशिरोमणि शाह तेजपालने बडा प्रवेशोत्सव किया था । शीरोही पहुंचने के पहले शाह तेजपाल की विनंतीसे सूरिजी आबुकी यात्रा के लिए गए, साथमें शाह तेजपालेका संघ भी था । सूरिजीने शीरोही में सुखपूर्वक चातुर्मास बिताया। उस समय जालोरका मंत्री श्रीजयमल्ल सूरिजी के पास पहुंचा तब सूरिजी विहार योग्य समय होनेपर स्वर्णगिरिको चले। वहांका राजा जालंधरसिंह था । स्वर्णगिरि में पहुंचने पर राजाने और लोगोंने सूरिजी का बडा आदर किया । उस समयके अधिकाधिक आदर-सत्कारको देखकर श्री विजदेवसूरिजी को खंभातनगर याद आ गया जहां कि अपने आचार्य पदका बडा भारी उत्सव हुआ था। इधर ही श्रीविजयसिंहसूरिका वंदना महोत्सव हुआ अर्थात् श्रीविजयदेवसूरिजीने अपने शिष्य श्रीविजयसिंहरिको सिंहासनके ऊपर विराजमान करके संघसमक्ष वंदन
१" अथास्ति पत्तनं नाम पत्तनं पत्तनोत्तमम् । रत्नयोनिं यतो लोकास्तद् ब्रुवन्ति च नापरम् ॥ ३४ ॥
" षोडशस्य तस्यान्दे त्रिसप्ततितमे रमे । माघमासावदातस्य पक्षस्योत्तमवासरे” ॥ ५६ ॥ - विजयदेवमाहात्म्य, सर्ग ९ । २ " अथ शश्वद् गुरोः पार्श्वे सर्वा विद्याश्चतुर्दश । सोपानैकादशाङ्गीयुक् पूर्वाण्यपि चतुर्दश” ॥ १ ॥ - विजयदेवमाहात्म्यसर्ग ९ | ३ “विजयदेवसूरीन्द्रं वसन्तं तत्र सांप्रतम् । प्रणत्य रत्नसिंहोऽयं श्राद्धो विज्ञपयत्यथ" ॥ ८४ ॥ - विजयदेवमाहात्म्य, सर्ग ९ । ४ " व्यवहारी सदाहारीश्वरेश्वरपुरस्कृतः । तत्र पावित्रभृद्गात्रः श्रेष्ठी वसति नाकरः " ॥ ६८ ॥ - विजयदेवमाहात्म्य, सर्ग ९ । ५ " प्रत्यर्बुदाचलं तीर्थं तेजपालस्ततोऽचलत् । प्रत्यहं वन्दमानोऽमा समायान्तं गणाधिपम् ॥ २५३ ॥ - विजयदेवमाहात्म्य, सर्ग ९ ।