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संक्षिप्त सारार्थ ।
["बादशाहके आग्रहसे सूरिजीने लाहोरमें दो चातुर्मास किए और बाद अपने गुरु श्रीहीरविजयजीको ऊनानामक ग्राममें रोगग्रस्त जानकर वे लाहोरसे गुरुजीके पास आनेको निकल पडे । गूजरात तरफ आते आते रास्तेमें सादडीमें चोमासा करना पडा और वहां ही श्रीविजयसेनसूरिजीने सुना कि श्रीहीरविजयजी गुरु, स्वर्गको सिधार गए । गुरुजीका स्वर्गगमन सुनकर आचार्यजीको बडी ग्लानि हुई। सादडीसे आचार्यजी पाटण पहुंचे, वहांसे खंभात
दको गए। अमदाबाद में और उसके पास सिकंदरा में श्रीसंघके आग्रहसे आचार्यजीने एक एक चातुर्मास किया । वहांसे लाटापल्ली (लाडोलपुर) में और वहांसे अपने गुरुके निर्वाण स्थल उन्नतपुर (ऊना) में आए । वहांसे विहार करते करते और अनेक ग्राम और नगरोंको अपने सदुपदेशसे पावन करते हुए आचार्यजी सूरतको गए। वहांसे फिर ऊनाको गये।
श्रीविजयसेनसूरिजीके एक श्रेष्ठ शिष्य नन्दिविजयमुनि बडे पंडित थे और अनेक भाषाओंके ज्ञाता थे। उस समय दीव बंदरमें फिरंगीयोंका राज्य था । वे फिरंगी लोक दुरात्मा थे। उन फिरंगीयोंके गुरु 'पादरी' कहलाते थे। उक्त नन्दिविजय मुनिने अपने कौशलसे फिरंगीयोंको बडे प्रसन्न कर लिये। अतिप्रसन्न होनेसे फिरंगीलोक जिनधर्ममें भक्ति रखने लगे, जिनप्रवचनको जानने लगे और जैन साधुओंकी सेवामें तत्पर भी रहने लगे। फिरंगीयोंने अपने गुरु पादरीको कहा कि-'जैन मुनियोंको दीवबंदर में आनेके लिए निमंत्रण भेजा जाय' 'जैन मुनियोंको देखनेकी तीव्र इच्छा सब फिरंगीयों में व्यक्त हुई है। पादरीने श्रीविजयसेनसूरिको दीवबंदरमें आनेके हेतु अपने हाथसे पत्र लिख भेजा। परंतु दीवके अग्रणी मुनिभक्त श्रावक मेघजीकी संमति जब तक न मिले तब तक सूरिजी दीवमें जानेको उत्सुक न हुए। क्यों कि उक्त मेघजीश्रावक फिरंगीयोंका बडा प्रियमित्र था और दीवका फिरंगी राजा क्रूर था। इधर पादरीका पत्र पाकर सूरिजी न आए तब मेघजीके कहनेसे फिरंगीयोंके राजाने स्वयं पत्र लिख भेजा और उस पत्रसे सूरिजी दीवको पधारे । आचार्य और फिरंगीयोंके राजाके बीच धर्म-वार्ता हुई, फिरंगीयोंका राजा प्रसन्न हुआ और उसने आदरके साथ जैन मुनियोंको दीवमें रहनेकी संमति दी। अब सूरिजीने दीवसे विहार किया
और फिरते फिरते वे अमदावादके पास शकंदरामें आ पहुंचे। वहां मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमीको मुनि विद्याविजयको पंडित पद दिया ।]
___ बाद खंभातके अग्रणी श्रावक और सोमश्रेष्ठिके बड़े भाई श्रीमल्लके आमत्रणसे आचार्यजी खंभात आए । श्रीमल्ल बडा धनाढ्य था और गुरुभक्त भी। आचार्यजीने खंभात आकर संवत् १६५७ वैशाख शुदि चोथके दिन अपने प्रिय शिष्य पंडित विद्याविजयको आचार्य-पद दिया और अपनी गद्दीका समर्पण किया । आचार्य-पद देनेके साथ ही विद्याविजयमुनिका नाम विजयदेवमूरि प्रकट हुआ और वे विजयसेनसूरिके पट्टधर बने । यही विजयदेवसूरि प्रस्तुत काव्यके नायक हैं । आचार्यपदके प्रसंग पर खंभातके श्रावक श्रीमल्लने बडा उत्सव किया और उत्सवमें दान भोजन वगैरहके लिए बडा भारी खर्च करके, अपने समानधर्मियोंकी अधिकाधिक सेवा की । पाटणमें सं० १६५८ पौष वदि ६ गुरुको श्रीविजयदेवमूरिका वंदना-महोत्सव हुआ। उस महोत्सवके खर्चका सारा भार सहस्रवीर श्रावकने अपने ऊपर लिया। कनकविजय और लावण्यविजय यह दो मुनि विजयदेवमूरिके शिष्य थे । एक समयकी बात है कि, जहांगिरशाह बादशाहने चरित्र नायक सूरिजीको अपने दरबारमें सादर बुलाए। सूरिजी
१[ ] इस कोष्ठकके अंदरका भाग विजयदेवसूरिमाहात्म्यसे लिया गया है। वहां यह भाग, सर्ग ६, श्लो० ४५ से ११६ श्लोक तक है। ऊपर, इस भागका सार मात्र दिया गया है।
२ "श्रीमत्पत्तनसगझे निरमाद् वन्दनोत्सवम् । सहस्रवीर आनन्दाद् यस्य द्रव्यव्ययाद् घनात्" ॥ ९३ ॥ "षोडशस्य शतस्यास्मिन् अष्टपञ्चाशवत्सरे । षष्ठ्या पौषस्य कृष्णायां गुरुवारे शुभावहे" ॥ ८४ ॥-श्रीविजयदेवसूरिमाहात्म्य, सर्ग ७ ।