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देवानन्दमहाकाव्य ।
[२] बालक वासुदेव युवान हुआ तब माताकी इच्छा उसको विवाहित करनेकी हुई । परंतु, पुत्र तो जैनी दीक्षाको वरना चाहता था। पुत्रके दीक्षा लेनेके विचारको जानकर माताने, पिताने और भाईयोंने उसको खूब समझाया, दीक्षाके दुःख बतलाए और दीक्षा न लेकर गृहस्थ बननेको कहा, परंतु युवक वासुदेव अपने विचारसे लेश भी चलित न हुआ; किंतु मातापितादिकको दीक्षाका परमार्थ समझाकर, अपना विचार सविशेष दृढीभूतकर दीक्षाके लिए उसने मातापिताकी संमति प्राप्त की । पुत्रस्नेहसे उसकी माताने भी दीक्षा लेनेका संकल्प किया। पुत्र वासुदेवने दीक्षा लेनेके पूर्व तीर्थयात्राका विचार किया । दीक्षाके लिए गुरुको भी ढूंढना तो था ही। तीर्थयात्राके निमित्तसे वह कार्य अधिक सुकर हो गया। अपने राजाके द्वारा यात्राप्रवासके लिए स्थल-स्थलमें सुप्रबंध करनेके हेतु नगरके राजाकी संमति लेकर स्थिर व्यवहारीका पुत्र वासुदेव तीर्थभ्रमणार्थ चल पडा ।
उस समय जैन धर्मके महान् आचार्य श्रीविजयसेनसूरि राजनगर (अमदावाद) में विराजमान थे । अकबर पादशाहको प्रतिबोध करनेवाले महान् तेजस्वी आचार्य श्रीहीरविजयजीके वे पट्टधर शिष्य थे।
तीर्थयात्रा करते करते युवक वासुदेवकुमार, अमदावादमें आ पहुंचा और श्रीविजयसेनसूरिजीके उपाश्रयमें गुरुवंदनके लिए गया। गुरुकी उपदेशपूर्ण वाणी सुन कर वासुदेव कुमारने गुरुको कहा कि-"मुजको दीक्षा दीजिए"। वासुदेवकुमारकी सोल्लास विनंती सुन कर गुरुने कहा कि-"वत्स ! तेरे ही निवास स्थल में तेरेको दीक्षा देना उचित है, अर्थात् तेरी दीक्षाविधि ईडरमें करना समुचित है; परंतु तेरे अत्याग्रहसे तेरी दीक्षाविधि यहांपर-अमदावादमें भी करना अनुचित नहीं । राजनगरके श्रावकोंने मिलकर वासुदेवकुमारका दीक्षोत्सव किया और अमदावादकी हाजापटेलकी पोलमें प्रियालवृक्ष के नीचे सकलसंघ-समक्ष श्रीविजयसेनसूरिने युवक वासुदेवको संवत् १६४३ के माघ शुदि दशमीको दीक्षित करके उसका 'विद्याविजय' नाम प्रकट किया। दीक्षोत्सवके समय सारे देशमें अमारि रखनेका प्रबंध हुआ था और दानका प्रवाह अविरत बहता था । अब वासुदेवकुमार नहीं परंतु मुनि विद्याविजय पांच व्रतोंको धारण कर उनका यथाशक्ति पालन करने लगे और शास्त्रोंका अध्ययन करनेके लिए तत्पर हुए । अपने प्रबल प्रयत्नसे मुनि विद्याविजय ज्ञान और क्रिया दोनों मार्गके पारगामी हुए।
एक समयकी बात है कि बादशाह अकबरने श्रीविजयसेनसूरिजीको अपने दरबारमें आनेका आमंत्रण भेजा। राधनपुरसे विहार करते हुए सूरिजी लाहोरमें बादशाह के दरबार में पधारे और धर्मके स्वरूपकी चर्चा की । सूरिजीने बादशाहको कहा कि-'दयामय धर्म ही सर्व श्रेयका असाधारण कारण है'। उस समय कई ब्राह्मणोंने बादशाहको कहा कि-'हुजूर! खुदाकी बनाई हुई परमपवित्र श्रीगंगा माताजीको ये जैनाचार्य नहीं मानते' । इसका उत्तर देते हुए आचार्यने कहा कि-'राजन् ! ऐसी बात नहीं है। हम जैन लोक गंगाजी को बडी पवित्र मानते हैं और इसी कारण हमारे जैन मंदिरोंकी प्रतिष्ठामें गंगाजलके विना चल ही नहीं सकता' । ऐसा कहकर दरबारमें आए हुए ब्राह्मणोंको आचार्यजीने निरुत्तर कर दिए। फिर आचार्यजी, भूतल पर विहार करने लगे और जैन धर्मके उपदेशका प्रचार करने लगे।
१ विजयदेवमाहात्म्यमें श्रीवल्लभोपाध्यायने लिखा है कि-"राजनगरमें अपने पुत्रको और अपनी पत्नीको दीक्षित कराने के लिए स्थिर शेठ खुद आया था और किरायेके मकानमें रहता था"।
“अथ श्यहम्मदावादे स्थिरः श्रेष्ठी समाययौ । पुत्रस्य स्वस्य पत्न्याश्च दीक्षाग्राहणहेतवे ॥"-सर्ग ५ श्लो०१। ___२ “षोडशस्य शतस्यास्मिन् त्रिचत्वारिंशवत्सरे । दशम्यां माघशुक्लस्य दीक्षाऽभूदु यस्य सोऽवतात् ॥" सर्ग ५ श्लो० ५२ ।
३-४ विजयदेवमाहात्म्य, सर्ग ६, श्लो०१३-२१ ।