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देवानन्दमहाकाव्य ।
उत्सव किया । तैलंगदेश के बादशाहने श्रीसूरिजी के उपदेशसे गौहत्याका निषेध किया । वहांसे सूरिजी फिर भाग्यनगरीको आए और वहां अनेक प्रकारके नये नये उत्सव हुए। वहांसे सूरिजी बीजापुरको गए और वहां भी धर्मका बडा प्रभाव हुआ । बादशाहने बंदियोंको छोड दिए। यहां भी साथमें आए हुए श्रावक देवचंद्रने बडा भारी दानप्रवाह बहाया । सूरिजीने कवि श्रीवीरविजयजीको 'पंडित' का पद दिया । अब फिर श्रीअंतरिक्षपार्श्वनाथ के दर्शन कर सूरिजी बुरानपुरको आए और वहां चातुर्मास विताया। गूजरात के संघका आग्रह होनेसे फिर वहांसे सूरिजी गूजरातको चले । विहार करते करते सूरिजी सूरतको आए । गूजरातदेश तो मोरकी तरह सूरिजी के आगमन की प्रतीक्षा में था ही ।
[ ६ ] अब बिहार करते करते सूरिजी गन्धपुर (गंधार) बंदरको पहुंचे। वहां अमदावादसे और अणहिल्लावाडसे अनेक लोक सूरिजीके बंदनको गए । धनजी शाह और रतनजी शाह के आग्रह से सूरिजी वहां ठहर गये । साहिब देतनयने और अखेशाहने बडा उत्सव किया और सूरिजीने अपने प्रिय शिष्य पं० वीरविजय मुनिको सं० १७१० वैशाख शुदि १० मीके दिन आचार्यपद से विभूषित करके उसका नाम विजयप्रभसूरि प्रकट किया । इसके बाद सूरिजी फिर सूरतको चले । वहांसे सूरिजी अहमदपुरको ( अमदावादको ? ) गए । धनजी शाह नामका श्रावक सूरिजीका बडा उपासक था ।
[ ७ ] धनजी शाह और उसकी पत्नी धनश्रीने मिल कर बहुत बडा उत्सव किया । महमूदिका की ( रुपये रुपयेकी ) प्रभावना की । विजयदेवसूरिजी और विजयप्रभसूरिजी दोनों शाहपुरमें आए। शाहपुर अमदावादका एक विभाग है । अमदाबाद में चातुर्मास करके सूरिजीने विमलगिरिकी यात्राके लिए प्रस्थान किया । साथ में रायचंद्र वगैरह भक्तिमान् श्रावक भी चले थे। वहांसे सूरिजी ऊनाको गए और वहां अपने प्रगुरु श्रीहीर विजयजीकी समाधिका दर्शन किया और यहां ही श्री विजयदेवसूरिजीने भी समाधि ली । संवत् १७१३ आषाढ शुक्ल एकादशीके दिन प्रातःकालको श्री विजयदेवसूरिजी स्वर्गधामको गए। अपने गुरुके विदेहवाससे श्रीविजयप्रभसूरिजी को बडा खेद हुआ । श्रावक रायचंद्रने वहां एक बडा विहार बनवाया और उसके ऊपरके ध्वजदंडमें धजा चढाई । ऊनाके पास दीवबंदर में श्रीविजयप्रभसूरिजीने संघके आग्रहसे दो चातुर्मास बिताये । अब श्रीविजयप्रभसूरि देवपाटण और जूनागढ़में चातुर्मास करके पोरबंदरमें आए। फिर वहांसे अब्धिकूल (वेरावळ) को गए। वहांसे सूरिजी विमल गिरी यात्रा के लिए प्रस्थित हुए । साथमें वेरावळ और पोरबंदरका श्रावक - समूह भी था। यहांसे सूरिजी घनौघ (आधुनिक घोघा ? ) नामक ग्राम में आए और पर्युषणाका महापर्व वहां ही बिताया। वहांपर जसूनामकी एक भक्त श्राविकाने प्रतिष्ठोत्सव किया । यहांसे सूरिजी गूजरातकी ओर चले और अमदावाद पहुंचे। वहां, सूरिजीने बीबीपुर नामके अमदावाद के उपपुरमें रहकर पर्युषणा के महापर्वकी आराधना की। यहांसे सूरिजी श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथ के दर्शन के लिए प्रस्थित हुऐ ।
१. “पट्टे न्यस्तः स इह गुरुणा बन्दिरे गन्धपुर्याम्, खैकाद्रीला १७१० शरदि समहं राधसम्यग्दशम्याम्” ॥ - मेघदूतसमस्यालेख, श्लो० १०६।
२ प्रस्तुत देवानंदाभ्युदयमहाकाव्य में सात सर्गमें मुख्यरूपसे श्रीविजयदेवसूरिजीका और आनुषङ्गसे श्रीविजयप्रभसूरिजी का वृत्तांत आया है । काव्य, माघकी समस्यापूर्तिरूप है इससे इसमें समस्या के पूरणका ही मुख्य लक्ष्य रक्खा गया है। इसी कारणसे श्री विजय"देवसूरिजीका वृत्तांत भी इसमें बहुत संक्षेप से आया है । सविस्तर जिज्ञासुओं को सूचना है कि-वे, विजयदेवसूरिजीका विशालवृत्तांत देखनेके लिए खरतरगच्छीय श्रीश्रीवल्लभपाठकविरचित श्रीविजयदेवमाहात्म्यको आयन्त पढें ।