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देवानन्दमहाकाव्य ।
३. देवानन्द महाकाव्यकी समस्यापूर्तिका परिचय प्रस्तुत सप्तसर्गात्मक महाकाव्य, माघकी समस्यापूर्तिरूप है। समस्यापूर्ति वा पादपूर्तिका स्वरूप इस प्रकार है-"या समासार्था पूरणीयार्था कविशक्तिपरीक्षणार्थम् अपूर्णतयैव पठ्यमानार्था वा सा समस्या"-अमरकोशटीका प्रथमकाण्ड, शब्दादिवर्ग श्लो० ७; अथवा "भिन्नाभिप्रायस्य श्लोकादेः तदीयत्वेन प्रत्यभिज्ञायमानानां भागानां खकृतेन परकृतेन वा भागान्तरेण समसनं सन्धानं समस्या"-माधवी, शब्दकल्पद्रुमकोश । अर्थात्-कविकी शक्तिके परीक्षणार्थ जिसका अर्थ पूरणीय है ऐसा पाद वा पादोंका उच्चारण, जिसको सुनकर प्रतिभाशाली कवि पूरणीय अर्थको पूरा कर देवें । अथवा जिसका अभिप्राय भिन्न भिन्न है ऐसे श्लोकादिकका अपनी वा परकी कृतिसे सन्धान करना याने भिन्न भिन्न अभिप्रायवाले अपूर्ण श्लोकको अपने अभिप्रायसे संगतरीतिसे पूरा करनेका नाम समस्यापूर्ति वा पादपूर्ति है। माघकी पादपूर्तिरूप प्रस्तुत देवानंदमहाकाव्यमें समस्यापूर्तिका उक्त लक्षण ठीक ठीक घटमान है। काव्यकार उपाध्याय मेघविजयजी प्रस्तुत समस्यापूर्तिमें सर्वथा सफल हुए हैं इतना ही नहीं किन्तु इस समस्यापूर्तिमें उनकी नवनवार्थशालिनी प्रकांड सर्वतोमुखी प्रतिभाका भी पता चलता है। माघका मुख्य ि कृष्णवासुदेवकृत शिशुपाल-वध है और प्रस्तुत काव्यका नायक वासुदेव कुमार-जो पीछेसे विजयदेवसूरि बनता है-है। मायके और देवानंदकाव्यके नायक वासुदेवपदाङ्कित है । कृष्णवासुदेवको दिल्ली जाना पडता है इसी तरह हमारे चरित्र नायकको भी जहांगीर बादशाहके पास दिल्ली जाना पड़ा है और कृष्णवासुदेवने रैवतक पर्वतके दर्शन किये थे इसी प्रकार हमारे चरित्रनायक भी तीर्थयात्राके लिए रैवतकगिरिको गए थे। इस प्रकार माघके नायकमें और प्रस्तुत काव्यके नायकमें थोडा बहुत साम्य है। प्रस्तुत समस्यापूर्ति में माघके सात स!का ही संबंध है। समस्यापूर्तिके लिए माघके श्लोकका अंतिम चरण-चतुर्थ चरण-अधिकतासे लिया गया है और कहीं कहीं आद्य चरण, द्वितीय चरण और तृतीय चरण भी उपयोगमें लाया गया है । संपादककृत टिप्पणोमें यह बताया गया है कि प्रस्तुत समस्यापूर्तिरूप काव्यमें कहां माघका प्रथम चरण है, कहां द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरण है; और साथमें मायके श्लोकका पाठभेद भी दर्शाया गया है । विसर्ग, अनुस्वार, पृथक्पद, समस्तपद, विभक्तिके वचनका भेद, क्रियापदभेद, 'श' 'स' 'न' 'च' का भेद, अत्यंत सहश समानार्थक शब्दका निक्षेप, समानार्थक शब्दका न्यास, संधिभेद, शब्दस्थानभेद, लिपिकारभेद-इत्यादि पर उक्त पाठभेद निर्भर है, और संपादकीय टिप्पणोमें जहां जहां वैसा पाठभेद हुआ है यह सब माघके श्लोकोंका प्रमाण देकर स्पष्टतया बताया गया है। समस्यापूर्ति भी पद्मबंधादिकी तरह एक प्रकारका चित्र-आश्चर्यकर-काव्य है; इसी कारणसे उसमें विसर्ग, अनुस्वारका अधिक महत्त्व नहीं, माघमें कहीं 'ललनाः' पाठ हो और इसमें 'ललना' पाठ हो इससे समस्यापूर्तिकी लेश भी क्षति नहीं। माघमें कहीं 'दिवम्' पाठ हो और यहांपर 'दिव' पाठ हो तब भी समस्यापूर्ति में कमी नहीं आ सकती । समस्यापूर्तिमें पूरणीय चरणके शब्दोंको नहीं बदलकर अर्थकी पूर्ति करनी होती है। कहीं कहीं 'ति'के स्थानमें 'च्युति', 'हव्यवह' के स्थानमें 'हव्यभुज' 'पयोज' के स्थानमें 'सरोज' इस प्रकारका परिवर्तन प्रस्तुत समस्यापूर्तिमें आया है परंतु यह परिवर्तन समस्याकारका खुदका किया हुआ है वा माघके ही पाठांतर है यह निश्चय नहीं हो सकता। और इस प्रकारका क्वचित् क्वचित् परिवर्तन समस्याकारका हो, तब भी समस्यापूर्ति के लिए बाधक नहीं, क्यों कि जहां सोंके सों तक समस्यापूर्ति चलती हो वहां इतना परिवर्तन अवश्य हो जाता है। प्रस्तुत समस्यापूर्ति में खास खूबी यह है कि माघके चरणोंका नया ही अर्थ समस्याकारने निकाला है । अर्थकी यह खूबी काव्यकारने अपनी टिप्पनीमें दी है। माघमें जहां जहां श्लोकके प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरणमें यमक है वहां वहां समस्याकारने यमक रखकर बडी चातुरीसे अर्थानुसंधान किया है। जैसी चमत्कृति माघमें है ऐसी ही चमत्कृति प्रस्तुत काव्यमें हैं । समस्याकारका मुख्य उद्देश कविताके द्वारा गुरुभक्तिको प्रगट करनेका है। इसी कारणसे प्रस्तुत काव्यमें नायकका संपूर्ण चरित्र सविस्तर नहीं बताकर