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प्रस्तावना ।
किया है । ग्रन्थकारने उक्त ग्रंथका संबंध 'स्थानांग' नामक तीसरे अंगसे बताया है । यह ग्रंथ संस्कृत प्राकृत दोनों भाषाओं में मिश्रित है ।
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१० युक्तिप्रबोध नाटक, ११ हस्तसंजीवन और उसकी वृत्ति ( रेखाशास्त्र) १२ उदयदीपिका' (प्रश्न निकालनेकी पद्धति), १३ पंचाख्यान, १४ वीसायंत्रविधि, १५ अर्हद्गीता (तत्त्वगीता ), १६ पंचमकथा, १७लघुत्रिषष्टिशलाकाचरित्र - इत्यादि और भी अनेक ग्रंथ मेघविजयजी उपाध्याय के बनाए हुए हैं ।
इसके उपरांत गुजराती भाषामें भी उनकी कितनी एक रचनाएं विद्यमान हैं । १ स्वाध्याय जैनशासन दीपक, २ स्वाध्याय जैनधरमदीपक, ३ स्वाध्याय आहारगवेषणा ये तीन सज्झायें कविराज श्रीमेघ विजयजीने बनाई है । 'विजयदेव निर्वाण रास' भी इनकी एक गुजराती कृति है । इससे ग्रन्थकार की मातृभाषाभक्ति प्रतीत होती है । ग्रन्थकारका एक स्वहस्तलिखित पत्र भी विद्यमान है और वह पत्र ग्रन्थकारने सं० १७६० भादरवा' शुदि० १ को गवालियरसे अपने शिष्य मुनि सुंदरविजय जो जिहानाबाद (दिल्ली) नगर में चातुर्मास थे उन पर लिखा हुआ है ।
इस प्रकार ग्रंथकारका अनेक विषयोंमें प्रकांड पांडित्य प्रकट होता है ।
प्रस्तुत ग्रंथ, श्रीसिंघीजैनग्रन्थमालामें मेरे द्वारा संपादित होकर प्रकट होता है, इसके लिए में आचार्य श्रीजिनविजयजीका और ग्रंथमालाके प्राणरूप श्रीमान् बहादूरसिंहजी सिंघीका ऋणी हूं । आशा करता हूं कि इस प्रकार और भी श्रीसिंघीजैनग्रंथमाला में नवीन नवीन ग्रंथोंका संपादन कर श्रुतज्ञानकी उपासनाका भागी बनूं ।
बेचरदास |
अमदावाद भारती निवास नं. १२, ब.
१ उदयदीपिकाके प्रारंभका भाग
२ अन्तभाग
"नत्वान्तं पार्श्वभावद्रूपं शतेश्वरस्थितम् । श्रीश्राद्धमदनात् सिंहे धर्मलाभः प्रतन्यते ॥ १ ॥ श्री केशव कृतार्चस्य श्रीपार्श्वस्य प्रभावतः । प्रभासभाजनानन्दहेतुरत्रास्तु वस्तुतः ॥ २ ॥ कृपामूलेऽर्हतां धर्मे श्रीमेघविजयोदयः । गवां रसप्रसारेण भूयाद् जीवनसम्पदे” ॥ ३॥
" श्रीमेघविजयः प्राप्तोपाध्यायपदविश्रुतः । भूविश्वत्यादिकाव्यस्य व्याख्यानं चक्रवानिदम् " ॥
३ " इतोऽधिकं किश्चन मातृकाया व्याख्यानमादेशि मया वितत्य । श्रीतत्त्वगीताहित सत्प्रतीताध्यायेषु सध्येयधियोत्तरेषु " ॥ -मातृकाप्रसाद ।
४ श्रीमेघविजयजीकी गूजराती भाषाका नमूनाः
“इम जैन धरम शुद्ध जाणो नाणउ संका तेहनी, घुरि भले भणतां शास्त्र गणतां शुद्ध मति हुइ जेहनी । तपगच्छनायक सुगुणग्राहक श्रीविजयप्रभगणधरो, तस पट्टधारी ब्रह्मचारी विजयरत्नसूरीसरो ॥
तस आण नित्य प्रमाण राखि कवि कृपाविजया तणउ । कहे सीस वाचक मेघविजया सेवक वाणी सवि भणउ ।"
- स्वाध्याय जैनशासनदीपक ।
५ पत्रका अंतिम भाग
लिखवा ।
“श्राद्ध सर्वनैं बिहुं पारई धर्मलाभ कहवो । वलता लेख सविशेष समाचार अत्र जलद चारु छइ । गोहु दोढ मण । चिणा बे छई । सुगाल छई । साता मानयो । संवत १७५६ भाद्र सुदि १ ।
पत्रका आदि भाग
"अत्र शर्म कर्म छई । तत्रनो ताहरो लेख श्रावण सुदि १२ नो लिख्यो लेख आव्यउ | समाचार जांण्या । तथा क्षेत्र आश्री
लिख्यं ते तो काल एहवो ज छे । सर्वत्र क्षेत्र दुर्भिक्षरूप थया छे । पन्नग व्याप्त छहूं । तेणे जिम तिम निर्वाह करवो ॥" - यह पत्र सारा गद्यमें है ।
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