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देवानन्दमहाकाव्य।
७ मेघदूतसमस्यालेख - रचनासमय अज्ञात । यह काव्य मेघदूतकी समस्यापूर्तिरूप हो कर, एक पत्र
रूप है। कविने भाद्रपद शुदि पांचमके बाद यह पत्र अपने आचार्य श्रीविजयप्रभसूरि, जो उस समय देवपाटणमें स्थित थे, उनको लिखा था । इससे इसका समय भी १७१० के बादका ही है। मेघदूतसमस्यालेखके अंतमें लिखा है कि विजयदेव गुरुकी भक्ति के लिए माघकी समस्यापूर्ति द्वारा उनकी प्रशंसा की और विजयप्रभ प्रभुकी भक्तिके लिए मेघदूतकी समस्यापूर्ति द्वारा उनकी प्रशंसा की। इस कथनमें ग्रंथकारने अपनी दो कृतियोंका जो अनुक्रम बताया है उससे यह ज्ञात होता है कि पूर्व माघसमस्यापूर्ति बनी और पीछे मेघदूतसमस्यापूर्ति । यह
अनुमान सच हो तो मेघदूतकी समस्यापूर्ति १७२७ के पीछे बनी है। .. ८ विजयदेवमाहात्म्यविवरण - रचनासमय अज्ञात । परंतु उस ग्रंथकी लिपि सं० १७०९ में हुई है
इससे मालूम होता है कि मूल ग्रंथ उसके पहिले बना हो और विवरण, मूलग्रंथके साथ वा पीछे बना हो । मूल ग्रंथ बृहत्खरतरगच्छीय श्रीजिनराजमूरिसंतानीय श्रीज्ञान विमलशिष्य श्रीवल्लभोपाध्यायने बनाया है । उसमें मुख्य विषय श्रीविजयदेवमूरिजीके जीवनका सविस्तर-वर्णन है । उपाध्याय मेघविजयजीने तो इस मूल ग्रंथका विवरण किया है-याने कठिन शब्दोंका अर्थस्फोट किया है। इस ग्रंथसे प्रतीत होता है कि उस समय खरतरगच्छ और तपागच्छके यति-मुनियोंमें गुणप्रेमके साथ विशालभाव था। यह भाव आज कल तो खास अनुकरणीय है।
९ वर्षप्रबोध- रचनासमय अज्ञात । परंतु ग्रन्थके प्रांतभागकी प्रशस्तिमें विजयप्रभसूरिके पट्टधर विजय
रत्नसूरिकी शासनधुरामें यह ग्रन्थ बना है ऐसा स्वयं ग्रन्थकारने लिखा है। इससे प्रतीत होता है कि 'वर्षप्रबोध' की रचना १७३२ के बाद की है। ग्रन्थमें तेरह अधिकार है और उनमें ग्रह, शकुन, वर्षफल इत्यादिकका अच्छा विवेचन
१ "माघकाव्यं देवगुरोर्मेघदूतं प्रभप्रभोः । समस्यार्थ समस्यार्थ निर्ममे मेघपण्डितः॥" -मेघदूतसमस्यालेख, प्रांतभाग। २ श्रीवल्लभोपाध्यायकृतविजयदेवमाहात्म्यके अंतभागके श्लोक“यदन्यगच्छप्रभवः कविः किं मुक्त्वा खसूरि तपगच्छ सूरेः । कथं चरित्रं कुरुते पवित्रं शङ्केयमाने कदापि कार्या ॥ २०॥ आत्मार्थसिद्धिः किल कस्य नेष्टा सा तु स्तुतेरेव महात्मनां स्यात् । आमाणकोऽपि प्रथितोऽस्ति लोके गङ्गा हि कस्यापि न पैतृकीयम् ॥२०१॥ तस्माद् मया केवलमर्थसिद्ध्यै जिह्वापवित्रीकरणाय यद्वा । इति स्तुतः श्रीविजयादिदेवः सूरिः समं श्रीविजयादिसिंहैः ॥ २०२ ॥
x x x जीयाचिरं स्ताद् मम सौख्यलक्ष्म्यै श्रीवल्लभः पाठक इत्यपाठीत् ॥ २०३ ॥ इति श्रीबृहत्खरतरगच्छीयश्रीजिनराजसूरिसंतानीयपाठकश्रीज्ञानविमलशिष्यश्रीवल्लभोपाध्यायविरचिते." ॥ इत्यादि ।
लिपिकारलिखितपुष्पिका"लिखितोऽयं ग्रन्थः पण्डितश्री५श्रीरङ्गसोमगणिशिष्यमुनिसोमगणिना। सं० १७.९ वर्षे चैत्रमासे कृष्णपक्षे एकादशीतिथौ बुधौ लिखितं श्रीराजनगरतपागच्छाधिराज भ. श्रीविजयदेवसूरीश्वरविजयराज्ये"। -विजयदेवमाहात्म्य, सर्ग १९, पृ० १२६-१२७ । ३ "श्रीमत्तपागणविभुः प्रसरत्प्रभावः प्रद्योतते विजयतः प्रभनामसूरिः । तत्पट्टपद्मतरणिविजयादिरत्नः स्वामी गणस्य महसा विजितधुरत्नः ॥
तच्छासने जयति विश्वविभासनेऽभूद् विद्वान् कृपादिविजयो दिविजन्मसेव्यः । शिष्योऽस्य मेघविजयाह्वयवाचकोऽसौ ग्रन्थः कृतः सुकृतलाभकृतेऽत्र तेन ॥"