________________
किंचित् प्रास्ताविक ।
गुरुके शिष्य-प्रशिष्य परस्पर एक-दूसरेके विरोधी बन कर गच्छ और संघके संगठनमें शिथिलता उत्पन्न करनेके निमित्त बन गये। गच्छके इस विरोधी वातावरणका प्रतिघोष ठेठ जहांगीरके दरबार तक जा पहुंचा। हीरविजय सूरिके शिष्योंमेंसे कईयोंके साथ जहांगीरका बचपनसे ही काफी परिचय था और वह अपने खर्गस्थ पिताकी, इन धर्मोपदेशकोंके साथवाली नीतिका यथोचित पालन भी करना चाहता । इस लिये उसने जब यह सुना कि हीर विजय सूरिके शिष्य, आपसमें अनबन हो जानेके कारण परस्पर एक दुसरेके विपक्षी बन रहे हैं और जिन विजयदेव सरिको. हीरविजय सरिक पद्रधर विजयसेन सरिने अपना उत्तराधिकारी बनाया है उसके बारेमें कई शिष्य-प्रशिष्य अपना विरोध व्यक्त कर रहे हैं: तब उसने सोचा कि देखना चाहिए कि यह विजयदेव सूरि कौन हैं और कैसे हैं ?। नियमानुसार उसने अपना फरमान भेज कर इन सुरिको अपने दरबारमें बुलवाये। जहांगीर उस समय मालवेके मांडू शहरमें था और विजयदेव सूरि खंभातमें चातुर्मास रहे हुए थे। बादशाहकी आज्ञा आते ही सूरिजी मांडूं की ओर चलदिये और आश्विन सुदि १४ के दिन वहां पहुंच कर बादशाहसे मिले | जहांगीर इनकी विद्वत्ता, तेजस्विता और क्रियानिष्ठा को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ; और इनके विपक्षियोंने जो जो बातें, इनके विषयमें उसके सामने कही थीं उनका इनमें विपरीतभाव जान कर, उसने इनको खूब सत्कृत किया और यह जाहिर किया कि-हीरविजय सूरिके ये ही यथार्थ उत्तराधिकारी हैं; और इस लिये इनको जहांगीरी महातपाकी उपाधि दे कर उस गच्छके सच्चे अधिनायक प्रमाणित किये।
इस प्रकार, यद्यपि इन्हीं के गुरुभ्राता आदि कहे जानेवाले कितनेएक यतिजनों द्वारा इनके ऐकाधिपत्यमें कुछ विक्षेप उपस्थित किया गया और गच्छवासी यतिजन दो-तीन पक्षोंमें विभक्त हो गये; तो भी तत्कालीन जैन समाजमें इनका प्रभाव सर्वाधिक रहा और ये सबसे अधिक ख्यातिलाम करते रहे । बादशाह जहांगीर के सिवा, मेवाडपति राणा जगत्सिंह, जामनगराधीश लाखा जाम, ईडरनरेश राय कल्याणमल आदि बहुतसे राजा-महाराजा भी इनका खूब आदर-सत्कार करते थे। जैन समाजके तो हजारों ही बडे बडे श्रीमान् और सत्तावान् श्रावकगण इनके परम भक्त थे । ये बडे बुद्धिमान और प्रभावशाली तो थे ही, साथमें क्रियावान् भी पूरे थे। छठ, अठ्ठम आदि उपवास तथा आयंबिल, निवी आदिकी तपस्या ये निरंतर किया करते थे । भोजन जिस दिन करते उस दिन भी प्रायः एक ही वक्त करते ।
इन्होंने अपनी सारी उम्र में, २ शिष्योंको आचार्य बनाये, २५ शिष्योंको उपाध्याय पद दिये और ५०० को पंडित पद दिये । इनके निजके हाथसे २०० शिष्य दीक्षित हुए और १०० साध्वीयां दीक्षित हुई । सब मिला कर २५०० यति-साधु इनके आज्ञानुवर्ती थे और ७००००० (सात लाख) श्रावक-श्राविकाओंका विशाल समूह इनकी उपासना करता था। इनके उपदेशसे सेंकडों ही नये जैन मन्दिर बने, और पुराने सुरक्षित हुए । हजारों जिन मूर्तियोंकी इन्होंने प्रतिष्ठा की । जहां जहां ये गये वहां वहां श्रावक लोकोंने जैनधर्मकी प्रभावना करनेके लिये संघयात्रा, प्रतिष्ठामहोत्सव, साधर्मिकवात्सल्य और दान-पुण्य आदि अनेकानेक सत्कृत्य कर लाखों-करोडों रूपये खर्च किये ।
अपने गच्छनायक गुरु विजयसेन सूरिकी मृत्युके बाद कोई ४०-४१ वर्ष तक ये इस प्रकार अपने संघका शासन करते रहे । पहले इन्होंने अपने कनकविजय नामक सुयोग्य शिष्यको, पाटणमें, सं० १६८१ में आचार्यपद देकर विजयसिंह सूरिके नामसे उद्घोषित कर उन्हें अपना उत्तरधिकारी निश्चित किया था; परंतु दुर्भाग्यवश इनके जीवितकाल-ही-में, सं० १७०९ में उनका खर्गवास हो गया; इससे फिर, वीरविजय नामक एक दूसरे योग्य शिष्यको, सं० १७१० में, गन्धार बन्दरमें रहते हुए नया आचार्यपद देकर विजयप्रभके नामसे उनको अपना सर्वाधिकारित्व समर्पण किया। इनका आज्ञानुवर्ती सारा जैन समुदाय, देवसूरसंघके नामसे प्रसिद्ध हुआ और आज भी यह नाम जहां तहां प्रचलित है ।
___ सं० १७१३ में, उसी ऊना नगरमें, जहां इनके प्रगुरु हीरविजय सूरिका स्वर्गवास हुआ था, वहां इनका भी स्वर्गवास हुआ और उसी जगद्गरुके समाधिस्थानके पास श्रावकोंने इनका भी पवित्र समाधिस्थान बनाया।