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देवानन्दमहाकाव्य । • इस प्रकार इन सूरिके जीवन-वृत्तान्तके साथ संबंध रखनेवाला इतिहास बडा विस्तृत है और वह तत्कालीन जैन समाजकी परिस्थितिका ज्ञान करानेमें बहुत ही अधिक महत्त्व रखता है।
इनके जीवनका विस्तृत वर्णन जिसमें दिया गया है वह विजयदेवमाहात्म्य नामका संस्कृत ग्रंथ है । इस ग्रंथको हमने कोई १०-१२ वर्ष पहले सम्पादित कर जैनसाहित्यसंशोधक-ग्रन्थमालामें प्रकाशित किया था। उसकी छोटीसी भूमिकामें उस समय हमने लिखा था कि_ 'यह विजयदेवमाहात्म्य १७ वीं शताब्दीके जैन धर्मके इतिहासकी दृष्टिसे एक बहुत ही महत्त्वका ग्रन्थ है। जैन आचायाँमें विजयदेव सूरिको अन्तिम प्रभावशाली आचार्य गिन सकते हैं । इनके समयमें जैन यतिसमुदाय और श्रावकवर्गमें बहुत घटनायें घटीं और क्रान्तियां हुई। धार्मिक और सामाजिक परिस्थितिके अवलोकनकी दृष्टिसे इन घटनाओंका इतिहास बहुत ही रोचक और सूचक है। इसलिये यह सारा इतिहास इस ग्रन्थके - विजयदेव माहात्म्यके- दूसरे भागके रूपमें प्रकट करनेका विचार रखा है।'... इत्यादि ।
हमारा वह विचार अभीतक सफल नहीं हुआ; सम्भव है वह कार्य इसी ग्रन्थमालाके लिये निर्धारित हुआ हो । उक्त विजयदेवमाहात्म्य अब प्रायः अप्राप्यसा हो गया है। इच्छा है कि उसकी पुनरावृत्ति की जाय और उसके साथका यह सारा इतिहास खूब विस्तारके साथ लिखा जाय ।
प्रस्तुत देवानन्द महाकाव्यमें जो इन सूरिका चरित-वर्णन है वह तो बहुत ही संक्षिप्त है । यह तो एक चमत्कृति बतलानेवाला अलंकारमय काव्य है,-वर्णनात्मक चरित्र ग्रंथ नहीं;-इसलिये इसमें विस्तृत वर्णनकी कोई गुंजाईश भी नहीं है और अपेक्षा भी नहीं है। इसका उद्दिष्ट रस तो कवित्व है। तो भी काव्यकारने सूरिजीके जीवन की प्रधान प्रधान घटनाओंका संक्षिप्त सूचन ठीक ठीक कर दिया है ।
इसके सम्पादक सुहृदूर पं० श्रीदेचरदासजीने अपनी प्रस्तावनाके साथ इस काव्यका जो परिचय और सरल सार दिया है उससे संस्कृत नहीं जाननेवाला जिज्ञासुवर्ग भी काव्यका आशय ठीक समझ सकेगा और अपनी जिज्ञासा-तृप्ति कर सकेगा । जो संस्कृतज्ञ हैं उनको तो इसके पाठमें विशिष्ट आनन्द प्राप्त होगा ही।
अनेकान्त विहार शान्तिनगर, अहमदाबाद। कार्तिकशुक्ला १५, सं० १९९४
जिनविजय।