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देवानन्दमहाकाव्य। रूपये न्यौछावर कर देते थे; पर ये अपने लिये किसीसे कभी कुछ एक कौडी भी नहीं मांगते थे। स्वर्गकी अप्सरायें जैसी रूपवती और लक्ष्मीवती हजारों स्त्रियां प्रतिदिन इनके सामने १०-१० वार ऊठबैठ कर नमन करती और घंटों हाथजोडे बैठकर इनका धर्मोपदेश सुनतीं; लेकिन निमेषमात्र भी इनकी आँखमें, कभी किसी प्रकारके विकारकी, कोई रक्तिमा उद्धृत नहीं होती थी । ऐसी तो इनकी चर्या थी; और ऊपर बतलाया वैसा इनका उदात्त ध्येय था। साधुताका यह परम आदर्श था ।
प्रस्तावित काव्यके नायक विजयदेव सूरिके प्रगुरु आचार्य हीरविजय सूरिकी ऐसी परम साधुताका हाल सुनकर अकबर बादशाहने बडे आदरके साथ उन्हें अपने दरबार-फतहपुर सीकरीमें बुलवाये । सूरिकी प्रशान्त मूर्ति, भव्य आकृति, उत्कृष्ट विरक्ति और अमृतोपम वाणीका अनुपम अनुभव कर वह महान् मुगल सम्राट अत्यंत प्रमुदित हुआ। अकबर जैसा उत्कट जिज्ञासु था, परीक्षक भी वैसा ही उत्कट था। उसकी परीक्षामें उत्तीर्ण होना आसान नहीं था। बडे बडे धुरन्धर विद्वान् और त्यागी-वैरागी उसकी कठोर परीक्षामें निष्फल हो जाते थे और उसके तेजमें वे अपना अस्तित्व लुप्त कर या तो उसके सेवक बन जाते थे या उसके शिष्य हो रहते थे । एक ही नजरमें वह अपने सन्मुख आनेवाली व्यक्तिका हीर परख लेता था और एक-ही-दो शब्दोंमें वह उसका मूल्य भी कर देता था। अपने समकालीन संसारका वह सबसे श्रेष्ठ चतुर और तेजस्वी पुरुष था । हीरविजय सूरिकी साधुताकी उसने यथेष्ट परीक्षा की और उसमें वे सोलह आने संपूर्ण सफल निकले, तब उसने उनको अपना परम पूज्य हितोपदेशक माना और 'जगद्गुरु' की पदवी देकर उनका उत्कृष्ट सम्मान किया । कोई ३-४ वर्ष हीरविजय सूरि फतहपुर सीकरी और आगरेके आसपास घूमते रहे और वारंवार अकबरको अपना धर्मोपदेश सुनाते रहे । बादशाहने उनके उपदेशसे खयं मांसभक्षण आदि बहुत कम कर दिया और पशु-पक्षियोंका शिकार करना भी बहुत कुछ छोड दिया। जैनधर्ममें परम पवित्र माने जानेवाले पर्युषणा पर्वके ८-१० दिन तक सारे ही साम्राज्यमें किसी भी प्राणीकी कोई कतल न की जाय ऐसी बादशाही आज्ञा भी जाहीर की गई । जैनधर्मके पवित्र स्थानोंको कोई किसी प्रकारकी हानि न पहुंचावे इसके लिये भी कई फरमान उसने निकाले और उन्हें हीरविजय सूरिके स्वाधीन किये। बादमें वृद्धावस्थाके कारण सूरिजी तो गूजरातमें वापस चले आये, लेकिन बादशाहकी इच्छासे अपने विद्वान् शिष्य उपाध्याय शान्तिचन्द्रजीको उसके दरबारमें रख आये। पीछे से भानुचन्द्र, सिद्धिचन्द्र, विवेकहर्ष आदि और भी सूरिजीके प्रभावशाली शिष्य वारंवार अकबरी दरबारमें आने-जाने और रहने लगे। यह सब इतिहास बहुत बड़ा है और उसका विशेष वर्णन करना यहांपर आवश्यक भी नहीं है।
___ हीरविजय सूरिके गूजरातमें चले आने बाद, पीछेसे बादशाहने, उनके पट्टधर आचार्य विजयसेन सूरिको भी अपने दरबारमें, जब वह लाहोरमें था, बुलवाये और उनका भी उसने यथेष्ट सम्मान किया और उन्हें 'सवाई हीरजी' की पदवीसे विभूषित किया । हीरविजय सूरिकी वृद्धावस्था और शारीरिक अस्वस्थताका समाचार पाकर विजयसेन सूरि अकबरके दरबारमें अधिक नहीं ठहर सके और अपने गुरुकी सेवा करने निमित्त गूजरात लौट आये । वे गूजरात पहुंचे भी नहीं थे कि, इधर काठियावाडके ऊना गांवमें सं० १६५२ में हीरसूरिका खर्गवास हो गया। इन्हीं विजयसेन सूरिके पट्टधर ये विजयदेव सूरि हुए । इनको आचार्य पद सं० १६५५ में, खंभातमें दिया गया था । उस समय इनकी उम्र कोई २१-२२ वर्षकी थी । सं० १६७२ में इनके गुरु श्रीविजयसेन सूरिका खर्गवास हो गया और उस समयसे ये अपने संघके सर्वप्रधान नायक बने।
हीरविजयसूरि के समयमें ही, उनके शिष्योंमें परस्पर कुछ विचार-भेद उत्पन्न हो गया, और वह धीरे धीरे बढता गया । विजयसेन सूरिके सामने उसने कुछ उग्र रूप धारण किया और फिर इन विजयदेवके समयमें वह पूर्णरूपसे वृद्धिंगत होकर
आखिरमें इनके गच्छमें तीन भेद पड गये। हीरविजय सूरिके जिस विशाल गच्छके विजयसेन सूरि अकेले ही गणनायक थे और जिनका एकच्छत्र शासन था उसी गच्छके, विजयदेव सूरिके सामने तीन पक्ष होकर, उसमें ३ गणनायक हो गये; और एक ही