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किंचित् प्रास्ताविक जिन विजयदेव सूरिका काव्यमय चरित-वर्णन प्रस्तुत देवानन्द महाकाव्यमें किया गया है, वे सूरि जैनधर्मके बहुत अच्छे प्रभावक पुरुषोंमेंसे एक हो गये हैं। एक प्रकारसे जैन समाजके ये अन्तिम समर्थ और तेजखी आचार्य थे । इनके बाद आज तक वैसा कोई प्रभावशाली, प्रतापवान् और प्रतिभापूर्ण आचार्य नहीं हुआ। जिस प्रकार मुगल सम्राटोंमें अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ ये तीनों सम्राट भारतवर्षके गौरवके उत्कर्षक हुए उसी प्रकार, जैनाचार्यों में भी हीरविजय सूरि, विजयसेन सूरि और विजयदेव सूरि ये तिनों आचार्य जैन समाजके गौरवके उत्कर्षक हुए। इन तीनों आचार्योंका मुगल सम्राटोंने खूब सत्कार किया था और इनके ज्ञान और चारित्रसे प्रभावान्वित हो कर म्लेच्छ कहे जानेवाले उन अनार्य सम्राटोंने भी जैन धर्मके प्रति अपना ऊंचा आदरभाव व्यक्त किया था।
उन मुगल सम्राटोंकी तरह इन जैनाचार्योंका इतिहास भी बडा विस्तृत और महत्त्ववाला है। ये आचार्य भी, अपने समाजके एक प्रकारके सम्राट् थे। सम्राटोंकी ही तरह इनकी आज्ञा भी, जैन समाजके धार्मिक विधानोंमें, अनुल्लंघनीय समझी जाती थी। सम्राटों-ही-की तरह जैन समाजमें इनका शासनतंत्र चलता था। जिस तरह, सम्राट अपने साम्राज्यकी रक्षा
और वृद्धिके प्रयत्नमें आजन्म तल्लीन रहते थे और भारतवर्षके इस कोनेसे उस को मते रहकर अपने शासनकी सुव्यवस्थामें व्यस्त रहते थे उसी तरह ये आचार्य भी जैन धर्म और जैन संघकी रक्षा और वृद्धिके प्रयत्नमें आजन्म दत्तचित्त रहते थे और जहां जहां इनके अनुयायी जन-गण और धर्म-स्थान होते थे वहां वहां ये सतत परिभ्रमण करते रहते
और अपने शासनकी सुव्यवस्था में लगे रहते थे । यद्यपि ये आचार्य बडे निरीह, निष्परिग्रही, तपस्वी, आत्मदर्शी और जितेन्द्रिय थे-कंचन और कामिनीसे सर्वथा अलिप्त थे- तथापि अपने धर्म और समाजकी उन्नति और प्रतिष्ठाके निमित्त ये राजामहाराजाओं और सम्राटोंके दरबारोंमें उपस्थित होते थे, अपने शिष्योंको उनकी इच्छानुसार उनके हितोंमें प्रवृत्त करते थे और उनके सुख-दुःखोंमें समवेदना और सहानुभूति भी प्रकट करते थे। और उसके बदले में, ये और कुछ न चाह कर सिर्फ भूतदया, प्राणीरक्षा और अहिंसाका उनसे प्रचार और पालन करवाते थे; अधर्मी और आत्याचारी द्वारा सताये जानेवाले प्रजाजनों और धर्मनिष्ठ मनुष्योंकी रक्षा करवाते थे और आत्मकल्याण करनेके साधनभूत धर्मस्थानोंकी पूजा और पवित्रताका सुप्रबन्ध करवाते थे।
न ये किसी प्रकारकी सवारी पर चढते थे, न किसी पर अपना बोज लादते थे। न किसीके यहां भोजनका भार डलवाते न किसीके घर पर जा कर मान-पान करवाते। चाहे सियाला हो चाहे उन्हाला-ये नंगे सिर और नंगे पैर ही सदा घूमते फिरते । चौमासेके ४ महिने ये एक जगह स्थिरवास करके रहते और फिर आठ महिने इधर-उधर परिभ्रमण करते रहते । कभी ये दक्खिनमें हैदराबाद और उससे आगे तक चले जाते और फिर वहांसे उत्तरमें लाहोर और उससे भी आगे तक पहुंच जाते; कभी पच्छिममें ठेठ समुद्रके किनारे दीवबन्दर तक चले जाते और कभी पूर्वमें पटना और उससे भी परे पार्श्वनाथपहाड (सम्मेतसिखर) तक सफर कर आते । भिक्षाके समय, हाथमें झोली ले कर, गृहस्थके घर अज्ञात रूपसे जा पहुंचते और धर्मलाभका आशीर्वाद दे कर, अपने उचित लूखा-सूका जैसा आहार मिल गया, उसे ले कर अपने मकान पर चले आते और एकान्तमें बैठ कर बिना किसी प्रकारके आखादका उपभोग करते हुए, उसे निगल जाते । पानी ये हमेशा गरम किया हुआ पीते । सूर्यास्तके बाद न कभी कुछ खाते न कभी कुछ पीते । रातको कोरी जमीनपर एक पिछोडी बिछा कर सो जाते । न धूलकी पर्वाह करते न पत्थर-कंकड की । न सख्त गर्मीमें कभी पंखा हिलाते और न सख्त सर्दीमें कभी आग सुलगाते । बडे बडे धन-कुबेर इनके दृढ उपासक थे-पक्के भक्त थे; इनके एक एक शब्द पर लाखों