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प्रास्ताविक वक्तव्य
मिलता । यह प्रति भी A संज्ञक प्रतिके समान ताडपत्रके पन्नोंके ढंगकी है। इसका कागज है तो कुछ मोटा हीलेकिन कुछ मुलायम है । इसके पन्नोंकी लंबाई ११ इंच और चौडाई ३१ इंच जितनी है । पन्नेके प्रत्येक पार्श्वपर ११-११ पंक्तियां लिखी हुई हैं । इसकी लिपि बहुत ही सुन्दर है और वाचना भी प्रायः शुद्धतर है । इसके पन्नोंके मध्य भागमें, चतुष्कोणाकारमें कुछ जगह बिनालिखी छोडी गई है जिसमें गेरूवे रंगका गोल चन्द्रक बनाया गया है
और उसके ठीक मध्यमें छेद कर दिया गया है । इस छेदमें सब पन्नोंको एकसाथ बान्ध रखनेके लिये सूतकी डोरी पिरोई जाती थी। _ प्रायः तेरहवीं शताब्दीमें जब इस देशमें कागजका प्रचार शुरू हुआ, तब ताडके पत्तोंके बदले कागजके पन्नों पर ग्रन्थ लिखने शुरू हुए । लेकिन ये कागजके पन्ने उसी आकार और नापके बनाए जाते थे जैसे ताडके पत्ते होते थे । यानि लंबाईमें अधिक और चौडाईमें कम । इससे पन्नेमें लिखान कम समाता था और इसलिये बडे ग्रन्थोंके लिये सौ दो-सौ और उससे भी अधिक संख्याके पन्नोंकी आवश्यकता होती थी। किसी किसी बृहत्काय ग्रन्थके लिये तो ५००-७०० जितने पन्ने भी पर्याप्त नहीं होते थे । इन अधिक संख्यावाले पन्नोंकी पोथीको ठीक ढंगसे बान्ध रखनेके लिये, पन्नोंके मध्यमें छेद कर, उसमें सूतकी डोरी पिरोई जाती थी। पन्नोंकी रक्षाके लिये उनके ऊपर और नीचेकी ओर उसी नापकी एक-एक लकडीकी पतलीसी पट्टी रखी जाती थी और उन पट्टियोंके से उस पुस्तकको बान्ध दी जाती थी । ताडपत्रकी पुस्तकोंको इस प्रकार डोरीमें बान्धे विना व्यवस्थित रखना कठीन रहता है । पत्ते चिकने होनेसे और चौडाईमें छोटे होनेसे, अधिक संख्यामें, वे एक साथ सरलतासे जम कर नहीं रह सकते और इधर-उधर खिसकते रहते हैं । इसलिये उनको जमा कर व्यवस्थित रूपमें रखनेके लिये इस प्रकार उनको डोरीमें बान्ध रखना अत्यन्त आवश्यक होता है । कागजके पन्ने भी प्रारंभमें जब, जैसा कि ऊपर कहा गया है, उन ताडके पत्तोंके जैसे ही लंबाई-चौडाईवाले बनाये गये तब उनको भी उसी प्रकार डोरीमें बान्ध रखना आवश्यक रहा । पर, पीछेसे अनुभवसे मालूम हुआ कि कागजके पन्ने तो और और आकारमें भी बनाये जा सकते हैं और वैसा करनेसे पुस्तकोंके लिखनेमें तथा रखनेमें भी कहीं अधिक सुविधा हो सकती है । तब फिर कागजके पन्नोंकी लंबाई-चौडाईमें परिवर्तन किया जाने लगा। यानि लंबाई कम की गई और चौडाई बढाई गई। ब इसका कोई निश्चित और व्यवस्थित परिमाण नहीं रहा। जिसको जो आकार और माप अच्छा लगता वह उस तरहके पन्ने बना लेता । यही सबब है कि प्रस्तुत ग्रन्थकी A प्रतिके पन्नोंकी लंबाई जब १४ इंच और चौडाई ३३ इंच है, तब D प्रति की लंबाई ११ इंच और चौडाई ३ इंच है । पर धीरे धीरे यह माप स्थिर होने लगा
और प्रायः १५ वीं शताब्दीमें अधिक व्यवस्थित और निश्चित रूपमें व्यवहृत होने लगा। यह माप प्रायः ऐसा रहा है - लंबाईमें १० से ११ इंच और चौडाईमें ४ से ५ इंच । १५ वीं शताब्दीके कुछ ग्रन्थोद्धारकोंने, प्रथम कुछ इससे भी बड़े आकारको पसन्द किया मालूम देता है। उस समयके भण्डारोंमें जो ग्रन्थ लिखाये गये उनमेंसे प्रायः बहुतोंका आकार लंबाईमें ११ से १२ इंच तकका और चौडाईमें ५ से ६ इंच तकका है । पर पीछेसे यह आकार कुछ असुविधाजनक मालूम दिया, और इसलिये बादमें प्रायः लंबाई-चौडाईमें, जैसा कि ऊपर बताया गया है, एक-एक इंच कम कर दिया गया । १५ वीं शताब्दीके बादके लिखे हुए जो हजारों पुस्तक जैन ग्रन्थ-भण्डारोंमें उपलब्ध होते हैं, उनका अधिकांश प्रायः इसी आकारका है। यह आकार जैन साधुओंको इतना अधिक पसन्द आ गया है कि, अब इस मुद्रणकलाके जमानेमें भी, उपयोगिता-अनुपयोगिताका कुछ अधिक विचार न कर, वे प्रायः इसी आकारमें, अपना ग्रन्थ-प्रकाशन-कार्य करते रहते हैं । अस्तु । ___ इस D प्रतिके पन्नोंके अंकोंमें एक विशेषता है, और वह यह कि इसके प्रत्येक पन्ने पर दो तरहसे अंक लिखे गये हैं । पन्नेके दाहिने हांसिये पर, ठीक मध्य भागमें, अन्यान्य पोथियों की तरह ही, देवनागरीके चालू अंक, जैसे