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प्रास्ताविक वक्तव्य १०१-१०२-१०३ इत्यादि, लिखे गये हैं । पर हांसियेके बायें पार्श्व पर, ताडपत्रकी पुरानी पोथियोंके ढंग पर, सांकेतिक अंक भी लिखे हुए हैं । जैसा कि
१०२ के अंकके लिये सु । १०३ के लिये सु। १०९ के लिये सु। और ११० के लिये सु
ऐसे संकेत हैं । ताडपत्र पर लिखे हुए ग्रन्थोंके पन्नोंपर प्रायः इसी तरहके, चालू और सांकेतिक, दोनों प्रकारके अंक लिखे रहते हैं।
इस प्रतिके अंतमें लिखनेवालेका नाम और समयादिका निर्देशक उल्लेख कोई नहीं मिलता, इसलिये इसका ठीक समय ज्ञात नहीं हो सकता; तो भी इन सांकेतिक अक्षरोंके अवलोकनसे और प्रतिकी स्थितिको देखनेसे मालूम होता है कि यह भी प्रायः, वि० सं० १४०० के पूर्व-ही-की लिखी हुई होनी चाहिए। हमारे पासकी प्रतियोंमें, A के बाद, प्राचीनताकी दृष्टि से इसका दूसरा स्थान है । इसके अन्तमें भी ग्रन्थकारकी प्रशस्ति विद्यमान है। . N संकेत-निर्णयसागर प्रेस द्वारा प्रकाशित, डॉ० हीरानन्द शास्त्रीकी उक्त मुद्रित आवृत्तिको हमने, निर्णयसागरके नाम पर N अक्षरसे संकेतित किया है । इसके उपरान्त, मुख्यतया ऊपर बतलाई हुई इन ४ पुरानी पोथियोंके आधार पर, प्रस्तुत आवृत्तिका संशोधन और संपादन किया गया है । इनके अतिरिक्त, पूनाके भाण्डारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीटयुटमें संरक्षित राजकीय ग्रन्थसंग्रहकी १ प्रति, तथा अहमदाबादके डेलाके उपाश्रयवाले जैन ग्रन्यभण्डारकी १ प्रति भी मंगवाई गई थी, किन्तु उनकी अनुपयोगिता देख कर, उनका कुछ उपयोग नहीं किया गया और इसलिये उनके कोई संकेत नहीं दिये गये । इस प्रकार इन ग्रन्थभण्डारोंमेंसे. हमें जो ये प्राचीन पोथियां प्राप्त हुई और उनसे इस ग्रन्थके संपादनमें जो विशिष्ट सहायता प्राप्त हुई, इसलिये हम यहां पर इन प्रतियोंके प्रेषक सज्जनोंका हार्दिक आभार मानते हैं और तदर्थ अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
यह प्रभावक चरित्र, एक बडे महत्त्वका ऐतिहासिक ग्रन्थ है । विक्रमकी १ ली शताब्दीसे लेकर १३ वीं शताब्दीके पूर्वभाग तकके, प्रायः साढे बारह सौ वर्षमें, होनेवाले जैन श्वेतांबर संप्रदायके सबसे बडे महान् प्रभावक, संरक्षक और शास्त्रकार आचार्योंके कार्य-कलाप और गुण-गौरवका इस ग्रन्थमें बहुत अच्छा संकलन किया गया है । ग्रन्थकारको अपने ग्रन्थके निर्माण करनेमें मुख्य प्रेरणा मिली है कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरिकी कृतिसे । हेमचन्द्र सूरिने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रकी रचना की, और फिर उसके परिशिष्ट रूपमें, भगवान् महावीर देवके बाद होनेवाले वज्रस्वामितकके आचार्योंके चरित्रका वर्णन करनेवाले स्थविरावलिचरितके नामसे एक परिशिष्टपर्वकी भी रचना की । हेमचन्द्र सूरिके इस परिशिष्टपर्वको देख कर प्रभाचन्द्र कविको कल्पना हुई कि- जहांसे हेमचन्द्र सूरिने पूर्वाचार्योंका चरित्रवर्णन बाकी छोड दिया है, वहांसे प्रारंभ कर, यदि हेमचन्द्र सूरि तकके आचार्योंके चरित-वर्णनका एक ग्रन्थ बनाया जाय तो वह जैन इतिहासके दर्शनमें बडा उपयुक्त होगा। यह सोच कर कवि प्रभाचन्द्रने इस प्रभावक चरितकी रचना की; और कहना चाहिए कि उन्होंने अपने उद्देशमें संपूर्ण सफलता प्राप्त की । ग्रन्थकार कहते हैं कि- उन्होंने अपने प्रन्थमें जो इतिवृत्त ( इतिहास ) का वर्णन किया है वह, कुछ तो प्राचीन ग्रन्थोंके आधार परसे लिया गया है और कुछ बहुश्रुत विद्वान् मुनियोंके पाससे सुना गया है। इसमें प्रथित किया हुआ यह इतिवृत्त कितना विश्वस्त, कितना उपयुक्त और कितना विस्तृत है इसकी विशेष चर्चा तो इस ग्रन्थका जो हिन्दी भाषान्तर प्रकट किया जायगा उसमें की जायगी।