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________________ प्रास्ताविक वक्तव्य प्रतिपत्तिथौ गुरुवासरे ऐंद्रयोगे गंभीरपुरे श्री श्री आगमगच्छे श्रीमहोपाध्याय श्रीमुनिसागर शष्यानुशष्य उपा० अमरसागरेण श्रीप्रद्युम्नसूरिकृतं प्रभावकचरितं महोद्यमेन लखितमिदं ॥ यत्नेन पालनीयं ॥ शुभं भूयात् ॥” ___ संस्कृतका ज्ञान न होनेसे लिपिकारने ग्रन्थकारका नाम भी ठीक नहीं समझ पाया और इससे 'प्रभाचन्द्रकृत'के बदले इसको 'प्रद्युम्नसूरिकृत' लिख दिया है । शायद ग्रन्थके अन्तमें, सबसे पीछे 'श्रीप्रद्युम्नमुनीन्दुना विशदितः' यह वाक्य आया हुआ देख कर प्रद्युम्नसूरि-ही-को इसका कर्ता उसने समझ लिया है। ___ इस प्रतिमें ग्रन्थकारकी अन्तिम ग्रन्थ-प्रशस्ति नहीं लिखी गई है । इस प्रतिके ४१ से ६० तकके २० पत्र किसी दूसरे लेखकके हाथके लिखे हुए हैं । इससे मालूम देता है कि शायद पीछेसे ये २० पन्ने खोये गये हैं, इसलिये किसी दूसरेने फिरसे लिख कर प्रतिमें रख दिये हैं और इस तरह त्रुटित प्रतिकी पूर्ति की गई है । इस प्रतिका भी किसी विद्वान्ने कुछ संशोधन किया है और कुछ पदच्छेद आदि करनेका प्रयत्न किया है । कहीं कहीं हांसियोंमें संस्कृत शब्दोंका गुजराती अर्थ भी लिखा है और कहीं कहीं प्रसंगोचित सुभाषित भी उद्धृत कर दिये हैं । इन सबको हमने यथास्थान, पृष्ठगत अधस्तन पाठभेदोंके साथ, उद्धृत कर दी हैं। प्रतिके प्रथम पत्र और द्वितीय पत्रमें दो चित्र चित्रित किये हुए हैं जिनमें पहला चित्र तीर्थकर - महावीरदेव - का है, और दूसरा, शायद ग्रन्थकारके संबन्धका है जिसमें वह अपना ग्रन्थ साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघवाली व्याख्यान-सभामें श्रोताओंको सुनाता हुआ बताया गया है । इन पन्नोंका हाफटोन ब्लाक बनवा कर भी इसके साथ दिया गया है जिससे पाठकोंको चित्रका ठीक वास्तविक दर्शन हो सकेगा। Cनामक प्रति- यह प्रति भी पाटणके उसी भण्डारमेंकी है । यह अपूर्ण है । इसमें बप्पभट्टिसूरि चरितके ४२१ श्लोक ( मुदित पृ०९७, पंक्ति ५) तकका भाग उपलब्ध है। प्रायः यह पूरी प्रतिका आधा भाग है। मालूम देता है भण्डारमेंसे किसीने कभी इस प्रतिका उत्तर भाग बाचने-पढनेके लिये लिया होगा; जो चाहे जिस कारणसे, फिर वापस नहीं किया गया और उससे यह प्रति इस भण्डारमें आधी ही रह गई है । कई ग्रन्थ-भण्डारोंमें यह रिवाज है, कि जिस किसीको, भण्डारमेंके ग्रन्थकी जरूरत होती है, तो उसे उसकी आधी ही प्रति दी जाती है। उस आधी प्रतिके लौटा देने पर फिर उसका दूसरा आधा हिस्सा दिया जाता है । ऐसी स्थितिमें, यदि किसी कारणवश, दिया हुआ ग्रन्थभाग वापस नहीं आया, तो फिर वह ग्रन्थ उस तरह त्रुटित दशामें पड़ा रहता है । पुराने भण्डारोंमें जो ऐसे असंख्य ग्रन्थ त्रुटित दशामें उपलब्ध होते हैं, उसका यही कारण होता है । इस प्रतिके कुल ८१ पन्ने विद्यमान हैं । पन्नोंकी लंबाई १०३ इंच और चौडाई ४१ इंच जितनी है । पन्नेकी प्रत्येक बाजूपर १३-१३ पंक्तियां लिखी हुई हैं । अक्षर अच्छे हैं किन्तु पाठ बडा अशुद्ध है । इस का उपयोग हमने कहीं कहीं- विशेष भ्रान्तिवाले पाठोंको ठीक करने हीके लिये – किया है और कोई विशेष उपयोग इसका नहीं हुआ। D नामक प्रति- यह प्रति पूज्यपाद श्रीमान् प्रवर्तक श्रीकान्तिविजयजी महाराजके निजी संग्रहकी है । यह प्रति भी अपूर्ण है । लेकिन, ऊपरवाली C प्रतिमें जब उत्तर भाग नहीं है, तब इसमें पूर्व भाग नहीं है । इसके पूर्व भागके १०१ पन्ने अनुपलब्ध हैं । इस उत्तर भागमें पत्रसंख्या १०२ से ले कर १९९ तक विद्यमान है । इसका प्रारंभ ठीक मानतुङ्गसूरिके चरितसे होता है । इससे मालूम देता है, कि शायद लिपिकारने इस प्रतिको लिखा ही दो खण्डोंमें होगा। इससे इसके पूर्व खण्डमें, कोई चरित, जैसा कि ऊपरवाली C प्रतिमें मिलता है, खण्डित नहीं .१ ग्रन्थकारके नाम विषयकी ऐसी भद्दी भूल तो निर्णयसागर की छपी हुई आवृत्तिके मुखपृष्ठ पर भी छपी हुई है। उसमें प्रभाचन्द्र सूरिके बदले कर्ताका नाम चन्द्रप्रभ सूरि लिखा है जो वास्तवमें ग्रन्थकारके गुरुका नाम है।
SR No.002516
Book TitlePrabhavaka Charita
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinvijay
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages252
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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