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________________ ३२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण परिणमन करता है, वह उपादान कारण होता है। जैसे- संसारी जीव स्वयं ही क्रोध, मान, माया, लोभ या राग-द्वेष आदि रूप परिणमन करता है, अत: वह उपादान कारण है और जो उसमें सहायक होता है, वह निमित्त कारण होता है। उपादान कारण- अष्टसहस्री में उपादान कारण का स्वरूप प्रकट करते हुए कहा गया है त्यक्तात्यक्तात्यारूपं यत्पूर्वापूर्वेण वर्तते। कालत्रयोऽपि तद् दव्यमुपादानमिति स्मृतम्।। अर्थात् जो द्रव्य तीनों कालों में अपने रूप को छोड़ता हुआ और नहीं __ छोड़ता हुआ, पूर्व रूप से और अपूर्व रूप से वर्त रहा है वह उपादान कारण है। द्रव्य गुणपर्यायवान् है। गुण शाश्वत होने के कारण अपने स्वरूप को त्रिकाल नहीं छोड़ते और पर्याय क्षणिक होने के कारण अपने स्वरूप को प्रतिक्षण छोड़ती है। ये गुण एवं पर्याय उस द्रव्य से पृथक् कोई अर्थान्तर रूप नहीं हैं। इन दोनों में समवेत द्रव्य ही कार्य का उपादान कारण है। उपादान कारण के लिए निज शक्ति, समर्थ कारण, मूलहेतु, अंतरंग साधन, मुख्य हेतु कर्ता आदि विभिन्न संज्ञाएँ प्रयुक्त होती हैं। प्रवचनसार की टीका में उपादान को अन्तरंग साधन मानते हुए कहा गया है "दव्यमणि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसन्निधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरणसामर्थ्यस्वभावेनांतरंगसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्याामानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते।।७५ ___ अर्थात् जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी जो कि उचित बहिरंग साधनों के सान्निध्य के सद्भाव में अनेक प्रकार की बहुत सी अवस्थाएँ प्राप्त करता है वह अन्तरंगसाधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण के सामर्थ्यरूप स्वभाव से अनुगृहीत होने पर, उत्तर अवस्था से उत्पन्न होता हुआ वह उत्पाद से लक्षित होता है। ___पंचास्तिकाय में धर्म-अधर्म को जीव की गति-स्थिति का मुख्य हेतु नहीं कहकर जीव या पुद्गल को ही उसका मुख्य हेतु अर्थात् उपादान माना है। इस प्रकार पंचास्तिकाय में उपादान के लिए 'मुख्य हेतु' शब्द प्रयुक्त हुआ है। समयसार कलश में "यः परिणति सः कर्ता" उक्ति के द्वारा उपादान को कर्ता शब्द से संबोधित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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