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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय ३१ तत्त्वकौमुदी टीका में कहा है-'प्रधानस्य सर्वकारणस्य यद् दर्शनमिति' अर्थात् बुद्ध्यात्मक कार्यरूप में परिणत हुई 'प्रकृति' जो सर्व कारण अर्थात् समस्त संसार का उपादान कारण है और 'तत्कृतः सर्गः' द्वारा प्रकृति और पुरुष का संयोग निमित्त कारण है। इस प्रकार प्रकृति रूप उपादान और प्रकृति-पुरुष संयोग रूप निमित्त कारण संसार की निष्पत्ति के जनक है। जैनदर्शन में उपादान-निमित्त का स्वरूप
आगमों में कारण के उपादान और निमित्त भेदों का स्पष्ट कथन नहीं मिलता है किन्तु अनुयोगद्वारसूत्र में प्रकारान्तर से उपादान कारण की स्वीकृति मिलती है, वहाँ शेषवत् अनुमान का निरूपण करते हुए कारण से कार्य के अनुमान का उदाहरण देते हुए तन्तुओं को पट का कारण निरूपित किया गया है। पट के प्रति तन्तुओं की कारणता उपादान कारणता ही है, अन्य नहीं।
आगमों में निमित्त शब्द का भले ही प्रयोग न हुआ हो, किन्तु आगमों में यत्र-तत्र निमित्तों की कारणता को जाना जा सकता है। उदाहरणार्थ- प्रज्ञापना सूत्र के २३वें पद में अष्टविध कर्म प्रकृतियों के बंधन की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव दर्शनावरणीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से दर्शन मोहनीय को प्राप्त करता है, दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को प्राप्त करता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ कर्म प्रकृतियों को बांधता है। यहाँ ज्ञानावरणीय का उदय दर्शनावरणीयके उदय का निमित्त कारण है। दर्शनावरणीय का उदय दर्शन मोहनीय की प्राप्ति का निमित्त कारण है, उसी प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म मिथ्यात्व की प्राप्ति में निमित्त कारण है और मिथ्यात्व का उदय आठ कर्म प्रकृतियों को बांधने में निमित्त कारण है। इस प्रकार निमित्त कारण की स्वीकृति आगम-साहित्य में अनेक स्थानों पर हुई है।७२
स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपादान-निमित्त का स्वरूप इस प्रकार प्रतिपादित
हुआ है
णिय-णिया-परिणामाणं णिय-णिय-दव्वं णि कारणं होदि।
अण्णं बाहिर - दव्वं णिमित्त - मित्तं वियाणेह।।७३ ___ अर्थात् अपने अपने परिणामों का उपादान कारण अपना द्रव्य ही होता है। अन्य जो बाह्य द्रव्य है, वह तो निमित्त मात्र है। इस प्रकार जो कारण स्वयं ही कार्यरूप
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