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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय १५ वैशेषिक आदि सम्मत कार्य और कारण का भेद-एकान्त कभी भी अनुभव में नहीं आता है, इनकी (कार्य-कारण) कथंचित् भिन्नाभिन्नता जैनों को स्वीकार्य है। इसकी सिद्धि में मल्लधारी हेमचन्द्राचार्य(१०७८ ई.शती) ने निम्न हेतु दिए हैं
१. तत्र संख्यासंज्ञा-लक्षणादिभेदादन्यत्वम्३- तन्तु कारण है और पट कार्य है। अभिधानादि लक्षण से ये भिन्न हैं। अभिधान अर्थात् नाम, इन दोनों का नाम पृथक् है। तन्तु अनेक और पट एक होने से इनमें संख्या भेद है। दोनों का स्वरूप भिन्न होने से इनके लक्षण भिन्न हैं। कार्य की भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है, जैसेतन्तुओं से बन्धन आदि और पट से शीत-रक्षा आदि कार्य सम्पादित होते हैं।
२. मृदादिरूपतया सत्त्व-प्रमेयत्वादिभिश्चानन्यत्वम्- पृथ्वी से व्यतिरिक्त घट नहीं है क्योंकि यह पृथ्वी की पर्याय है। पर्याय रूप से मिट्टी और घट में एकत्व है। कारण और कार्य में सत्ता की समानता है तथा कारण-कार्य दोनों जानने योग्य होने से उनमें ज्ञेयत्व की एकता है। कारण-कार्य का प्रमाणित स्वरूप होने से ये प्रमेयत्व रूप भी हैं। अत: कहा गया है"कार्यमभिधानादिभेदाद् भिन्नं सत्त्व-ज्ञेयत्वादिभिस्त्वभिन्नं स्यात्।' २५
मिट्टी से भिन्न घट नहीं है, पृथ्वी की पर्याय होने से। घट मिट्टी से अनन्य और अभिन्न है, किन्तु मात्र पृथ्वी या मिट्टी को देखकर घट को नहीं जाना जा सकता है। अत: कार्य-कारण में अभेद के साथ भेद को भी स्वीकारना आवश्यक है। इस प्रकार पृथ्वी या मिट्टी से घट अन्य और भिन्न भी है। जैसा कि भाष्यकार ने विशेषावश्यकभाष्य की निम्नांकित गाथा में कहा है
जं कज्ज-कारणाइं पज्जाया वत्थुणो जओ ते य।
अन्नेऽणन्ने य मया तो कारण-कज्जभयणेयं।।२६
इस प्रकार कारण और कार्य परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। जैनदर्शन में सर्वत्र कारण-कार्य की भिन्नाभिन्नता स्वीकार की गयी है। कार्य-कारण की सदृशासदृशात्मकता
स्याद्वादी जैन दर्शन कार्य को न तो पूर्ण रूप से कारण के सदृश स्वीकार करता है और न ही कारण के असदृश स्वीकार करता है। वह कार्य को कारण से कथंचित् सदृश और कथंचित् असदृश मानकर कार्य-कारण की सदृशासदृशात्मकता प्रतिपादित करता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कार्य की सदृशता उपादान कारण से
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