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________________ जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय १३ "कार्य में जो स्वभाव रहता है वह उसमें अपने कारण से आता है, कार्य जैसे ही कारण से उत्पन्न हुआ कि साथ ही वे स्वभाव उसमें उत्पन्न हो जाते हैं। जैसेमिट्टी के पिण्ड में रूप आदि गुण हैं वे घटरूप कार्य के उत्पन्न होते ही साथ के साथ घट रूप कार्य में आ जाते हैं। कोई-कोई कार्य के स्वभाव ऐसे भी होते हैं कि जो कारणों में नहीं रहते हैं, ऐसे कार्य के वे गुण उस कारण से पैदा न होकर स्वत: ही उस कार्य में हो जाया करते हैं। जैसे कार्यरूप घट में जल को धारण करने का गुण है वह मात्र उस घट रूप कार्य का ही निज स्वभाव है, मिट्टी रूप कारण का नहीं। इस प्रकार पदार्थ उत्पत्ति मात्र में कारणों की अपेक्षा रखते हैं, जब वे पदार्थ उत्पन्न हो जाते हैं अर्थात् अपने स्वरूप को प्राप्त कर चुकते हैं तब उनकी निजी कार्य में प्रवृत्ति तो स्वयं ही होती है। अतः कार्य निष्पन्न होने पर अपने कार्य के संपादन में वह कारण-सापेक्ष नहीं रहता।" नित्यानित्यात्मक पदार्थों में ही कार्यकारणभाव जैन दार्शनिकों के अनुसार नित्यानित्यात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक अथवा सामान्यविशेषात्मक पदार्थों में ही कार्यकारणभाव घटित हो सकता है, मात्र नित्य एवं मात्र अनित्य पदार्थों में कार्य-कारणभाव घटित नहीं होता। इस तथ्य का प्रतिपादन हरिभद्राचार्य विरचित षड्दर्शन समुच्चय के टीकाकार गुणरत्नसूरि ने इस प्रकार किया है "कार्यकारणभावे संभविनी, कार्यकारणभावश्चार्थक्रियासिद्धौ सिध्येत्। अर्थक्रिया च नित्यस्य क्रमाक्रमाभ्यां सहकारिषु सत्स्वसत्सु च जनकाजनकस्वभावद्वयानभ्युपगमेन नोपपाते। अनित्यस्य तु सतोऽसतो वा सा न घटते। १७ ___ अर्थात् कार्य-कारण भाव अर्थक्रिया करने वाले पदार्थों में होता है। सर्वथा नित्य तथा सर्वथा अनित्य साध्य-साधनों में अर्थक्रिया संभव न होने से उनमें कार्यकारणभाव नहीं बनता। नित्य पदार्थ सदा एक स्वभाव वाला होता है, अत: उसमें क्रम से तथा युगपत् सहकारियों की मदद से तथा उनकी मदद के बिना, किसी भी तरह कोई भी अर्थक्रिया नहीं हो सकती, क्योंकि हर हालत में अनेक कार्यों को उत्पन्न करने के लिए अनेक स्वभावों की आवश्यकता है, जिनका कि नित्य में सर्वथा अभाव है। इसी प्रकार सर्वथा क्षणिक (अनित्य) पदार्थ भी अपने सद्भाव में तथा असद्भाव में अर्थक्रिया नहीं कर सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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