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________________ १२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण मिट्टी की अनुपस्थिति में घट का न होना। धवला पुस्तक में भी कारण-कार्य का अन्वय-व्यतिरेक प्रतिपादित हुआ है "जस्स अण्ण-विदिरेगेहि णियमेण जस्सण्णयविदिरेगा उवलंभंतितं तस्स कज्जमियरं च कारणं। '१३ जिसके अन्वय और व्यतिरेक के साथ नियम से जिसका अन्वय और व्यतिरेक पाया जाये, वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है। कार्यकारण में क्रमभाव जैन दार्शनिक माणिक्यनन्दी ने 'परीक्षामुख' में कार्य-कारण को क्रमभावी बताते हुए कहा है- “पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारणयोश्च क्रमभावः' अर्थात् पूर्व और उत्तर कालभावी पदार्थों में तथा कार्य-कारणों में क्रमभाव अविनाभाव होता है। कृतिका नक्षत्र का उदय और रोहिणी नक्षत्र का उदय आदि पूर्वोत्तरचारी कहलाते हैं एवं धूम और अग्नि आदि कार्य-कारण कहलाते हैं, इनमें क्रमभाव पाया जाता है। जो युगपत् होते हैं या बिना क्रम से होते हैं, उनमें कारण-कार्य भाव नहीं बनता, जैसेगाय के शंग। कारण-कार्य का क्रम काल द्वारा निर्धारित होता है। अतः पूर्वकाल में कारण और उत्तर काल में कार्य संभव बनता है। कारण के समय में कार्य और कार्य के समय में कारण नहीं होता, क्योंकि समान काल वाले पदार्थों में कार्य-कारण भाव असंभव है। अत: गौ के दायें बायें सींगों में कार्य-कारण भाव नहीं बनता। कार्यकारण संबंध वाले पदार्थ सहभावी नहीं पाए जाते। अतः धवला पुस्तक में कहा गया है- "कार्यकारणयोरेककालं समुत्पत्ति-विरोधात्।'५ यहाँ उल्लेखनीय है कि कार्य एवं कारण की एककालता का प्रतिषेध उपादान कारण को दृष्टि में रखकर किया गया प्रतीत होता है, क्योंकि निमित्त कारण तो कार्य के समय में भी विद्यमान रहते हैं। उदाहरणार्थ 'घट' कार्य के उत्पन्न होने पर उपादान मिट्टी घट कार्य में परिणत हो जाने से घट कार्य के समय मिट्टी स्वरूप में नहीं रहती, किन्तु कुम्भकार, चक्र आदि निमित्त कारण तो घट कार्य के पूर्व एवं उसके समय में भी विद्यमान रहते हैं। हाँ, यह अवश्य है कि उन निमित्त कारणों का भी कार्य हो जाने पर कारणत्व नहीं रहता। अत: धवलाकार का कथन उपयुक्त ही है। कार्य में कारण से विशिष्टता कार्य उत्पन्न हो जाने के पश्चात् अपनी अर्थक्रिया में कारण-सापेक्ष नहीं रहता है। इस तथ्य को प्रकट करते हुए प्रभाचन्द्राचार्य (९८०-१०६५ ई.) 'प्रमेयकमलमार्तण्ड'१६ में कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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