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८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण प्रत्येक उत्पाद (उत्पत्ति) का कोई प्रत्यय, कारण और हेतु है, यही प्रतीत्यसमुत्पाद है। जिसके होने पर अन्य वस्तु का सृजन हो तो वह पहली वस्तु दूसरी वस्तु का प्रत्यय कहलाती है। किसी उत्पाद में सहायक होना ही प्रत्यय का लक्षण है। इसलिए प्रत्यय सामग्री के निमित्त से ही पदार्थों का सत्ता में आना प्रतीत्य समुत्पाद है। प्रतीत्य समुत्पाद को 'तथता', 'अवितथता', 'अनन्यथता'और 'इदं प्रत्ययता' भी कहा गया है।
द्वितीय और तृतीय आर्यसत्य रूप दुःख-समुदय और दुःख-निरोध की वैज्ञानिक व्याख्या है- प्रतीत्य समुत्पाद। हेतु सहित धर्म को जान लेना ही प्रतीत्य समुत्पाद है। प्रज्ञा से हेतुओं का दर्शन करके ही प्राणी नाम और रूप के बंधन से विमुक्त होता है। यही कारण है कि प्रतीत्यसमुत्पाद को प्रज्ञा की भूमि भी कहा गया है। प्रतीत्यसमुत्पाद केवल दार्शनिक सिद्धान्त ही नहीं, अपितु जीवन के विकास का क्रम भी है। यह दुःख निरोधगामी आर्य आष्टांगिक मार्ग की तात्त्विक व्याख्या करता है।
____ जगत् में कुछ लोग भवितव्यता के कारण दुःख का उद्गम मानते हैं तो कुछ काल और स्वभाव को हेतु मानते हैं। इनके मन्तव्य को अस्वीकार करते हुए भगवान् बुद्ध ने दुःख के अन्य वास्तविक कारण माने हैं क्योंकि उन कारणों का निरोध कर दिए जाने पर दुःख परम्परा भी निरुद्ध हो जाती है। किस तरह यह प्राणी इस तृष्णा रूपी जाल से अपने आपको निकाल पाएगा, इसी समस्या का समाधान तथागत के द्वारा विशुद्धि मार्ग के रूप में दिया गया है और इसी को सैद्धान्तिक रूप में प्रतीत्यसमुत्पाद की संज्ञा दी गई है।
प्रतीत्यसमुत्पाद की प्रक्रिया- अविद्या के प्रत्यय से संस्कार, संस्कार के प्रत्यय से विज्ञान, विज्ञान के प्रत्यय से नाम रूप, नाम रूप के प्रत्यय से षडायतन, षडायतन के प्रत्यय से स्पर्श, स्पर्श के प्रत्यय से वेदना, वेदना के प्रत्यय से तृष्णा, तृष्णा के प्रत्यय से उपादान, उपादान के प्रत्यय से भव, भव के प्रत्यय से जाति, जाति के प्रत्यय से जरा-मरण-शोक, परिदेव, दुःख, दौर्मनस्य और हैरानी-परेशानी उत्पन्न होते हैं। यह दु:ख स्कन्ध का समुदय ही प्रतीत्यसमुत्पाद है।
इस नियम के अनुसार आध्यात्मिक या बाह्य जगत् की होने वाली कोई भी घटना अपनी उत्पत्ति के पूर्व की घटना रूप प्रत्यय हेतु अथवा निदान के फलस्वरूप होती है तथा वह स्वयं भी भविष्य की घटना के प्रति कारण होती है। इस प्रकार यह कारण-कार्य रूप भवचक्र निरन्तर चलता है। व्यक्ति यदि इस नियम के अनुसार आचरण करे तो अपने दुःख का अन्त कर सकता है और अपनी समस्याओं का हल पा सकता है।
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