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जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय
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कारण में कार्य की सत्ता को अस्वीकार करते हुए नैयायिकों का यह दृष्टिकोण नहीं है कि कोई भी वस्तु जिसका अस्तित्व नहीं है, उत्पन्न की जा सकती है, अपितु जो वस्तु उत्पन्न हुई है पहले उसका अभाव था । अतः कार्य उत्पन्न होने पर प्रागभाव का नाश हो जाता है।
कार्य की पूर्ति में विभिन्न कारणों की अपेक्षा रहती है। इन कारणों का संयोग मिलने पर ही नए कार्य की उत्पत्ति शक्य बनती है। नैयायिकों ने इन कारणों को तीन प्रकार से वर्गीकृत किया है
१. समवायिकारण - " सत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते तत्समवायिकारणम्" जिसमें समवाय संबंध से रहता हुआ कार्य उत्पन्न हो वह उस कार्य का समवायिकारण है। इस प्रकार कार्य अपने कारण में समवेत होता है। जैसे घट मिट्टी में समवेत है। अतः घट का समवायिकारण मिट्टी है ।
२. असमवायिकारण- "समवायिकारणे आसन्नं प्रत्यासन्नं कारणं द्वितीयमसमवायिकारणमित्यर्थः समवायिकारण में जो आसन्न (साथ रहता) है, वह असमवायिकारण है। जैसे- तन्तु रूप समवायिकारण में तन्तुसंयोग प्रत्यासन्न है । अतः तन्तुसंयोग असमवायिकारण है।
समवायिकारणासमवायिकारणाभ्यां
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३. निमित्तकारण-"आभ्यां
परं
भिन्नं कारणं तृतीयं निमित्तकारणम्" समवायिकारण और असमवायिकारण से भिन्न तृतीय निमित्त कारण होता है। जैसे- कर्ता, करण आदि।
इस प्रकार समवायी, असमवायी और निमित्त कारणों से ही जगत् के कार्य संभव बनते है।
असत्कारणवाद या प्रतीत्यसमुत्पाद
बौद्ध दर्शन में कारणवाद के सिद्धान्त को प्रतीत्यसमुत्पाद के नाम से अभिहित किया गया है। भगवान् बुद्ध के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों में "चार आर्य सत्य” एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इनमें दूसरा आर्य सत्य "दुःखसमुदय" है। दुःख समुदय के अन्तर्गत १२ निदान का कथन है। ये १२ निदान ही प्रतीत्यसमुत्पाद है।
प्रतीत्यसमुत्पाद का अर्थ है - प्रत्ययों से उत्पत्ति का नियम । प्रत्यय के पर्याय रूप हेतु, कारण, निदान, समुदय और उद्भव आदि शब्द इस प्रसंग में प्रयुक्त होते हैं।
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