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६२२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
दशाचक्रनेमिक्रमेण वाक्य पूर्वकृतकर्म रूपी भाग्य की पुष्टि करते हैं। पंचतन्त्र, हितोपदेश और नीतिशतक भी दैव या पूर्वकृतकर्म सिद्धान्त के पोषक हैं। नीतिशतक में समस्त सृष्टि के संचालन को कर्म के अधीन प्रतिपादित करते हुए कर्म को नमन किया गया है- 'नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ।
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योगवासिष्ठ में दैव और पुरुषार्थ की विस्तृत चर्चा है । पुरुषार्थ द्वारा फल की प्राप्ति को दैव स्वीकार किया गया है तथा दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की प्रबलता अंगीकार की गई है।
न्यायदर्शन में कर्म को अदृष्ट के रूप में निरूपित किया गया है। सांख्य दर्शन में धर्म से ऊपर के लोकों में गमन तथा अधर्म से अधोलोक में गमन अंगीकार किया गया है। मीमांसा दर्शन में प्रतिपादित अपूर्व सिद्धान्त को कर्म - सिद्धान्त का पर्याय कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन में कर्म को चैतसिक कहते हुए उसे चित्त के आश्रित माना गया है। कर्म के वहाँ मानसिक, वाचिक और कायिक तीन भेद अंगीकृत हैं, जिन्हें त्रिदण्ड भी कहा गया है। वेदान्त दर्शन के अनुसार बंधन का मूल कारण अविद्या या अज्ञान है। योगदर्शन में क्लिष्ट वृत्ति के संस्कार को ही कर्म बंधन के हेतु माना गया है। योग सूत्र में जाति, आयु और भोग के रूप में कर्म विपाक की त्रिविधता निरूपित है।
कर्म - सिद्धान्त का सबसे अधिक व्यवस्थित निरूपण जैन दर्शन में उपलब्ध है । यह जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है । कर्म सिद्धान्त या कर्मवाद से सम्बद्ध जैन दर्शन में विपुल साहित्य है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रज्ञापना सूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, स्थानांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र आदि आगम साहित्य के अतिरिक्त कम्मपयडि, ६ कर्म ग्रन्थ, पंच संग्रह आदि अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम, कसायपाहुड, गोम्मटसार आदि ग्रन्थ अपना अप्रतिम स्थान रखते हैं।
जैन दर्शन में कर्म - सिद्धान्त का जितना व्यवस्थित एवं व्यापक निरूपण उपलब्ध होता है उतना किसी अन्य दर्शन में नहीं। जैन मान्यतानुसार कर्मों के कारण ही जीव संसार में परिभ्रमण करता है। कर्मों का पूर्ण क्षय ही मोक्ष का स्वरूप है। जैनदर्शन में आठ कर्म प्रतिपादित हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन आठ कर्मों का स्वरूप इनके बंध के हेतुओं आदि का जैन साहित्य में विशद प्रतिपादन हुआ है। कर्म के बंधन में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग की भूमिका स्वीकार की गई है। इन पाँच बन्ध हेतुओं में भी योग और कषाय को अधिक महत्त्व दिया गया है।
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