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६२० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
सन्मतितर्क के टीकाकार अभयदेवसूरि ने नियतिवाद के निरसन में अनेक हेतु दिए हैं
१. ज्ञान को उत्पन्न करने वाली नियति अज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकती। २. नियतिवाद को स्वीकार करने पर अनियम में कारण का अभाव है। ३. नियति नित्य भी नहीं हो सकती और अनित्य भी। ४. स्वात्मनिक्रियाविरोध के कारण नियति स्वयं को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है। ५. काल आदि अन्य कारणों का निषेध मानने पर निर्हेतुक नियति की उत्पत्ति
मानना उचित नहीं है।
धर्मसंग्रहणि टीका में आचार्य मलयगिरि ने नियतिवाद के निरसन में दो हेतु दिए हैं१. नियति के अतिरिक्त कारण को अंगीकृत किये बिना जगत् की विचित्रता
संभव नहीं है। २. नियति से भिन्न भेदक कारणों को स्वीकार करने पर जगत् की विचित्रता में
अन्योन्याश्रय दोष आता है।
आधुनिक युग में बीसवीं शती के जैनाचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने नियति के संबंध में भाव-अभाव रूप, एक-अनेक रूप, नित्य-अनित्य रूप विकल्पों के माध्यम से नियतिवाद का निरसन करते हुए नियति में व्यतिरेक को असंभव सिद्ध किया है तथा नियति की एकरूपता, अनेकरूपता के साथ अभावरूपता का भी खण्डन किया है।
जैन दर्शन में भी कथंचित् नियति का प्रवेश है। जैन दर्शन में कथंचित् नियति को स्वीकार करते हुए काललब्धि, सर्वज्ञता और क्रमबद्धपर्याय को एकान्त नियतिवाद से पृथक् सिद्ध किया गया है, क्योंकि जैन दर्शन में नियति को कारण मानते हुए भी उसमें काल, स्वभावादि अन्य कारणों को भी स्थान दिया गया है।
पंचम अध्याय में पूर्वकृत कर्मवाद की चर्चा है। पूर्वकृत कर्मवाद के अनुसार जीव के द्वारा किये गए कर्मों का ही फल सुख-दुःख आदि के रूप में प्राप्त होता है तथा यही जगत् की विचित्रता का कारण है। अपने-अपने कृत कर्मों के कारण ही जीव विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करते हैं तथा कर्मों की भिन्नता के आधार पर भिन्न-भिन्न शरीर ग्रहण करके अपने कृत कर्मों का फल भोग करते हैं।
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