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________________ ६१४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण अभयदेवसूरि ने इस निर्हेतुक स्वभाववाद का युक्तियुक्त निरसन किया है। पदार्थों के कारण की सत्ता उपलब्ध है। यह अनेक हेतुओं से सिद्ध है तथा अनुपलब्धि हेतु की असिद्धि है। कण्टकादि की तीक्ष्णता निर्हेतुक नहीं है, क्योंकि उसमें बीज आदि की कारणता सिद्ध है। कादाचित्क हेतु निर्हेतुक स्वभाववादियों के विरुद्ध है, क्योंकि यह हेतु साध्य निर्हेतुक से विपरीत सहेतुक को सिद्ध करता है। कार्य-कारण सिद्धान्त दोषपूर्ण नहीं है। स्वभाववाद की सिद्धि में कारक हेतु की बजाय ज्ञापक हेतु मानना उचित नहीं है। ज्ञापक हेतु भी स्वपक्ष की सिद्धि का उत्पादक होने से कारक हेतु के समान होता है। कारक हेतु साध्य का उत्पादक होता है तो इससे स्वभाववाद की प्रतिज्ञा बाधित होती है। 'निर्हेतुकाः भावाः' की प्रतिज्ञा में हेतु दिए जाने पर निर्हेतुक स्वभाववाद वदतो व्याघातः की भाँति खण्डित हो जाता है। बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित (८वीं शती) ने भी अपनी कृति तत्त्वसंग्रह में स्वभाववाद का विशद उपस्थापन एवं निरसन किया है। स्वभाववाद की मान्यता को उन्होंने सर्वहेतुनिराशंसं के रूप में प्रस्तुत किया है। ये स्वभाववादी संभवत: निर्हेतुक स्वभाववादी है जो स्व और पर दोनों को कारण नहीं मानते हैं। शान्तरक्षित और उनके टीकाकार कमलशील ने विभिन्न तर्क देकर स्वभाववाद का निरसन किया है। जिसका प्रभाव जैनाचार्य अभयदेवसूरि पर भी दृष्टिगोचर होता है। स्वभाववाद के दो रूप प्राप्त होते हैं- १. स्वभाव हेतुवाद २. निर्हेतुक स्वभाववाद। हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में स्वभावहेतुवादी का ही खण्डन किया है, जबकि तत्त्वसंग्रह एवं अभयदेवकृत तत्त्वबोधविधायिनी टीका में स्वभावहेतुवादी और निर्हेतुक स्वभाववादी दोनों मतों का खण्डन प्राप्त है। इससे ज्ञात होता है कि स्वभावहेतुवाद पूर्व में स्वभाववाद के रूप में स्थापित था, धीरे-धीरे यह विकास को प्राप्त हुआ और निर्हेतुक स्वभाववाद के रूप में स्थापित होने लगा। जैन ग्रन्थों में स्वभाव का विभिन्न दृष्टियों से निरूपण हुआ है तथा उसे जैन दार्शनिक कथंचित् कारण के रूप में स्वीकार भी करते हैं, किन्तु उसकी कारणैकान्तता का प्रबल प्रतिषेध करते हैं। चतुर्थ अध्याय 'नियतिवाद' से सम्बद्ध है। नियतिवाद के अनुसार नियति ही सब कार्यों का कारण है। नियतिवाद का निरूपण मंखलि गोशालक ने किया था। उनकी मान्यता का स्पष्ट उल्लेख व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र और बौद्ध त्रिपिटक के दीघनिकाय में स्पष्टतः हुआ है। सूत्रकृतांग और उपासकदशांग सूत्र में भी नियतिवाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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