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________________ उपसंहार ६१३ अनेक रूप है तो मूर्त है या अमूर्त? इन प्रश्नों के उत्तरों का विकल्प प्रस्तुत करते हुए हरिभद्रसूरि ने स्वभाववाद का सबल निरसन किया है। हरिभद्रसूरि ने स्वभावहेतुवाद का निरसन करते हुए कहा है कि स्वभाव जब क्रम से कार्य उत्पन्न करता है तब काल की भी अपेक्षा रखता है। काल की अपेक्षा रखने के कारण स्वभाववाद का सिद्धान्त सिद्ध नहीं हो पाता-'मुक्तः स्वभाववादः स्यात्कालवाद-परिग्रहात्।१३ उन्होंने निर्हेतुक स्वभाववाद के खण्डन में कहा है कि सुख-दुःख की विचित्रता यदि निर्हेतुक है तो वह सदैव ही होनी चाहिए या सदैव ही नहीं होनी चाहिए क्योंकि निर्हेतुक वस्तु अन्य की अपेक्षा नहीं रखती है। अत: सुखदुःख सहेतुक हैं और हेतु के रूप में स्वकृत कर्म को छोड़कर किसी कारण की संभावना नहीं बनती। शास्त्रवार्ता समुच्चय के टीकाकार यशोविजय ने स्वभाववादियों के तर्क क्रमिक स्वभाव से क्रमिक कार्यों की उत्पत्ति होने में स्वभाववाद का भंग नहीं होता, का निरसन करते हुए कहा है कि प्रत्येक कार्य के प्रति भिन्न-भिन्न स्वभाव को कारण मानने से घट आदि की एक जातीयता नहीं बन पाएगी। जबकि घट-पट आदि जैसे एक जाति के सहस्रों कार्य जगत् में देखे जाते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में अज्ञात कृतिकार ने भी स्वभाववाद के निरसन में तर्क दिया है कि स्वभाव कार्यगत हेतु है या कारणगत? यह कार्यगत नहीं हो सकता, क्योंकि कार्य के निष्पन्न होने के बाद ही उसकी संभावना हो सकती है। अत: यह कार्य का हेतु नहीं हो सकता। कारणगत स्वभाव को कार्य का हेतु मानने पर अज्ञात टीकाकार ने अपनी सहमति प्रकट की है। अभयदेवसूरि ने कहा है कि 'स्वभावतः एव भावा जायन्ते कथन में स्वात्मनि क्रियाविरोध दोष आता है। दूसरा दोष यह है कि जो पदार्थ अनुत्पन्न है उसका उत्पन्न होने का स्वभाव नहीं माना जा सकता। उत्पन्न पदार्थ में भी उत्पन्न होने के स्वभाव की निवृत्ति माननी होगी, जिससे स्वभाव की नित्य कारणता का खण्डन हो जाता है। उन्होंने 'सन्मतितर्क' पर तत्त्वबोधविधायिनी टीका में निर्हेतुक स्वभाववाद का उपस्थापन करते हुए चार हेतु दिए हैं- १. अनुपलभ्यमानसत्ताकं कारणम्- पदार्थों के कारण की सत्ता उपलब्ध नहीं होती इसलिए वे निर्हेतुक है। २. प्रत्यक्ष से काँटों की तीक्ष्णता आदि में कोई कारण ज्ञात नहीं होता इसलिए भी कार्य निर्हेतुक है। ३: कादाचित्क होने से दुःखादि आध्यात्मिक कार्य निर्हेतुक हैं। ४. कार्य-कारण सिद्धान्त ही दोषपूर्ण है, क्योंकि उसमें अन्वय-व्यतिरेक की व्याप्ति व्यभिचार युक्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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