________________
५९८ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
१६. लोकप्रकाश, सर्ग ९, श्लोक २७४-२७७ १७. जैन तत्त्व प्रकाश, ग्यारहवी आवृत्ति, १९९०, पृष्ठ ८४-१०१
सूत्रकृतांग शीलांक टीका सहित, मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिक ट्रस्ट, दिल्ली, प्रथम संस्करण १९७८, पृष्ठ २५१ प्रवचनसार, गाथा ९९ प्रवचनसार, गाथा ९८ पर अमृतचन्द्राचार्य की टीका प्रवचनसार गाथा ९६ 'तिविहा पोग्गला पण्णत्ता तंजहा- पयोग परिणता, मीससा परिणता, वीससा परिणता।'
-भगवती सूत्र, शतक ८, उद्देशक १ व्याख्याप्रज्ञप्ति १.२.२.१५ छव्विहा ओसप्पिणी पण्णत्ता, तंजहा- सुसम-सुसमा, सुसमा सुसम-दूसमा, दूसम-सुसमा, दूसमा, दूसम-दूसमा। छव्विहा उस्सप्पिणी पण्णत्ता तंजहादुस्सम-दुस्समा, दुस्समा, दुस्सम-सुसमा, सुसम-दुस्समा, सुसमा, सुसमासुसमा।
-स्थानांगसूत्र, स्थान ६, सूत्र २३, २४ भरतैरावताख्येषु क्षेत्रेषु स्याद्दशस्वयं।
कालः परावर्त्तमानः सदा शेषेष्यवस्थितः। -लोकप्रकाश, सर्ग २९, श्लोक ४३ २६. जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ ३०,३१
जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ ३०
जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, सप्तम वक्षस्कार, सूत्र २०८ २९. जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ ११५ ३०. जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ ११५-११६
जैन तत्त्व प्रकाश, पृष्ठ ११६ ३२. प्राच्ये जन्मनि जीवानां या भवदेवगाहना।
तृतीय भागन्यूना सा सिद्धानामवगाहना।। -लोकप्रकाश, सर्ग २, श्लोक १२५
लोक प्रकाश, सर्ग ३०, श्लोक ५६-६० ३४. असंख्यायुतियचश्चरमागांश्च नारका।
सुरा शलाका पुमांसोऽनुपक्रमायुषः स्मृता।। -लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लोक ९०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org