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जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५९५ जैन दर्शन में अष्टविध कमों का प्रतिपादन है। आठ कर्म हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इन आठों कर्मों का विशद विवेचन आगमों, कर्मग्रन्थों, कषायपाहुड, गोम्मटसार
आदि में सम्प्राप्त है। २. जैनदर्शन के अनुसार कर्मपुद्गल स्वयं ही जीव को अपने उदयकाल में फल
प्रदान करते हैं। ३. जैन दर्शन में मान्य पुनर्जन्म का सिद्धान्त पूर्वकृत कर्म के सिद्धान्त को पुष्ट
करता है। ४. जब कर्मों का पूर्ण क्षय हो जाता है तो मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है फिर कों
का बंधन नहीं होता। ५. तीर्थकर बनना भी पूर्वकृत कर्म का ही परिणाम है। ६. जैन दर्शन की मान्यता है कि सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के
अनुसार ही संसार में भ्रमण करते हैं तथा विभिन्न योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं।
जैन दर्शन में पुरुष/पुरुषकार की कारणता पर पूरा बल दिया गया है। सिद्धसेन सरि ने पाँच कारणों में 'पुरुष' शब्द का प्रयोग किया है, पुरुषकार या पुरुषार्थ इसी का विकसित रूप है। आत्मा को अपने कार्यों या कर्मों का कर्ता मानने के आधार पर जैन दर्शन में पुरुष की कारणता स्वीकार की जा सकती है तथा जीव के द्वारा किए गए प्रयत्नों को पुरुषकार या पुरुषार्थ की संज्ञा दी जा सकती है।
जैन दर्शन में पुरुषकार या पुरुषार्थ का विशेष महत्त्व है। पुरुष के साथ पुरुषकार की कारणता स्वयं सिद्ध है। भारतीय संस्कृति में मान्य पुरुषार्थ चतुष्टय में से यहाँ धर्म पुरुषार्थ को अधिक महत्त्व दिया गया है। पुरुषार्थ की सिद्धि जैन वाङ्मय में पदे-पदे प्राप्त है। जैन धर्म में मान्य धर्म-पुरुषार्थ या पराक्रम को पुष्ट करने वाले कुछ बिन्दु इस प्रकार हैं
१. तप संयम में पराक्रम की प्रेरणा की गई है। २. मोक्ष की सिद्धि हेतु पुरुषार्थ को जागरित करने पर बल दिया गया है। ३. संयम, तप, निर्जरा आदि में पुरुषार्थ को साधन स्वीकार किया गया है। ४. तीर्थंकर ऋषभदेव से महावीर तक के २४ तीर्थकरों का जीवन, गौतम आदि
ग्यारह गणधरों का जीवन पुरुषार्थ को पुष्ट देता है।
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