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५९४ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ४. २४ तीर्थकरों में एक तीर्थकर के निर्वाण तथा दूसरे तीर्थकर के बीच का जो
अन्तर है वह प्रत्येक चौबीसी में उसी प्रकार रहता है। ५. अकर्म भूमि में पुरुष-स्त्री के युगलिक का उत्पन्न होना तथा कर्मभूमि में
प्रथम तीन आरों में युगलिकों की उत्पत्ति स्वीकार करना काल एवं क्षेत्र की नियति है। अकर्म भूमि में नपुंसक पुरुष का उत्पन्न न होना भी नियति की
मान्यता को इंगित करता है। ६. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार जम्बूद्वीप में कम से कम चार और अधिक से
अधिक ३४ तीर्थकरों के होने का कथन तथा कम से कम ४ और अधिक से
अधिक ३० चक्रवर्ती होने का कथन भी नियति को सिद्ध करता है। ७. सिद्धों में पूर्वभव के आश्रित, क्षेत्राश्रित, अवगाहना आश्रित अनेक तथ्य ऐसे
हैं, जो जैन धर्म में नियति की कारणता को पुष्ट करते हैं। ८. जैन कर्म सिद्धान्त में भी अनेक ऐसे निश्चित नियम है जो नियति को पुष्ट
करते हैं। योग और कषाय के होने पर कर्म पदल का आत्मा के साथ
चिपकना नियत है। विभिन्न गतियों में जीवों की उत्कृष्ट आयु नियत है। ९. पूर्वकृत कर्म जीव के भावी जीवन को नियति की तरह प्रभावित करते हैं। १०. अनपवर्त्य आयुष्य वाले जीव आयुष्य की पूर्ण अवधि भोगकर ही मरण को
प्राप्त होते हैं, यह नियति है। ११. निकाचित कर्म की मान्यता भी नियति की सूचक है। १२. वर्तमान में यह मान्यता है कि जम्बूस्वामी के मोक्ष जाने के पश्चात् केवलज्ञान
सहित १० बातों का विच्छेद हो गया है। इसमें नियति कारण है। १३. आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार नियति सार्वभौमिक नियम या निश्चित नियम के
रूप में स्वीकार की जा सकती है। नियति की यह मान्यता जैन दर्शन में अपरिहार्य है। जो जन्मता है वह अवश्य मरण को प्राप्त होता है, यह भी एक नियति है। यह भी नियत है कि कोई जीव एक बार सम्यक्त्व प्राप्ति कर ले तो वह जीव अधिकतम १५ भव में अवश्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।
पूर्वकृत कर्म की कारणता जैन दर्शन का प्रमुख एवं केन्द्रिय सिद्धान्त है। कर्म-सिद्धान्त से सम्बद्ध जैन दर्शन में विशाल साहित्य है। जैन वाङ्मय में कर्म सिद्धान्त का व्यवस्थित एवं विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। कर्म-सिद्धान्त जैन दर्शन का प्राचीन एवं सर्वमान्य सिद्धान्त है। कर्म की सिद्धि में कतिपय बिन्दु -
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