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________________ जैनदर्शन की नयदृष्टि एवं पंच समवाय ५९१ पुरुषार्थ की सफलता अन्य कारणों के उपस्थित रहने पर होती है। इस तथ्य को योग बिन्दु में हरिभद्रसूरि ने अभिव्यक्त किया है अस्मिन् पुरुषकारोऽपि सत्येव सफलो भवेत्। अन्यथा न्यायवैगुण्याद् भवन्नपि न शस्यते।।२ पुरुषार्थ भी तभी सफल होता है, जब वह आत्मा, कर्म आदि के स्वभाव के अनुरूप हो। वस्तु स्वभाव के विपरीत होने से पुरुषार्थ की कार्यकारिता सिद्ध नहीं होती। अत: मात्र पुरुषार्थ को प्रशस्त नहीं माना जा सकता। पूर्वकृत कर्म (भाग्य) और पुरुषार्थ परस्पर मिलकर कार्य करते हैं। हरिभद्र सूरि ने शुभाशुभ कर्म को दैव या भाग्य कहा है तथा अपने वर्तमान कर्म व्यापार को पुरुषार्थ कहा है। व्यावहारिक दृष्टि से दैव और पुरुषार्थ में अन्योन्याश्रय देखा जाता है। जो व्यक्ति संसार में है उसका पूर्वसंचित कर्म के बिना जीवन व्यापार नहीं चलता और जब तक वह कार्य व्यापार में संलग्न नहीं होता तब तक संचित कर्म का फल प्रकट नहीं होता ___न भवस्यस्य यत् कर्म बिना व्यापारसंभवः। न च व्यापारशून्यस्य फलं स्यात् कर्मणोऽपि हि।।३ पूर्व कर्मों के शुभ होने से व्यक्ति के मन में शुभ भाव उत्पन्न होता है तथा वर्तमान में जिस प्रकार के कर्म किये जाते हैं कालान्तर में व्यक्ति का वैसा ही स्वभाव होता है। योगबिन्दु में हरिभद्रसूरि ने इसी तथ्य को प्रकट किया है शुभात् ततस्त्वसौ भावो हन्ताऽयं तत्स्वभावभाक्। एवं किमत्र सिद्ध स्यात् तत एवास्त्वतो ह्यदः।।" इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि कालादि पाँच कारण कभी-कभी एक दूसरे के प्रतिबंधक रूप में प्रतीत होते हैं किन्तु वास्तव में वे एक-दूसरे के पूरक हैं। पंच समवाय : अनेकान्तवादी दृष्टि का परिणाम जैन दर्शन में पंच समवाय का सिद्धान्त जैन दार्शनिकों की अनेकान्तवादी दृष्टि का परिणाम है। जैन दर्शन में पहले से ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव की कारणता मान्य रही है किन्तु उस समय प्रचलित सृष्टि विषयक कार्य-कारण की जिन अवधारणाओं का जैन दर्शन में अविरोध रूप से स्वीकार हो सकता था, उनका जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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