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________________ ५९० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण नहीं होता है और वे स्वयं पुरुषार्थ करने में भी समर्थ नहीं होते हैं। मनुष्यादि जीवों के पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ का सबंध कभी-कभी अजीव पदार्थों में होने वाले कार्यों से जोड़ा जा सकता है। किन्तु उन अजीव पदार्थों का न तो कोई अपना भाग्य होता है और न ही पुरुषार्थ। मिट्टी से जब घट बनता है तो मिट्टी के स्वभाव के अनुसार काल और नियति की अपेक्षा रखकर घट बनता है। मिट्टी स्वयं कोई पुरुषार्थ नहीं करती, पुरुषार्थ तो कुम्भकार करता है जो चाक आदि उपकरणों का सहयोग लेकर मिट्टी को एक आकार प्रदान करता है। घट का निर्माण होने पर कुम्भकार का ही भाग्योदय माना जाता है। इसलिए परिणमन जैन दर्शन में दो प्रकार का माना गया है- १. विस्रसा परिणमन २. प्रयोग परिणमन। जहाँ बिना किसी के पुरुषार्थ के स्वभावतः धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल में तथा मुक्त जीवों में विनसा अर्थात् स्वभावत: परिणमन होता है। प्रयोग परिणमन में जीव का पुरुषार्थ कारण बनता है। जैसे लोहे से किसी कलपुर्जे का निर्माण लौह-पुद्गल का प्रयोग परिणमन है। पाँच कारण सर्वत्र घटित होते हों यह अनिवार्य नहीं है, इसकी पुष्टि शोध कार्य के दौरान मेरे द्वारा पूछे गए प्रश्नों के लिखित उत्तर में आचार्य महाप्रज्ञ ने इन शब्दों में की है- “समवाय के पाँचों तत्त्वों को एक साथ घटित करना कोई अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए। कहीं पाँचों तत्त्व एक साथ घटित हो सकते हैं। कहीं उनमें से एक, दो अथवा तीन घटित हो सकते हैं। निमित्त अनेक हैं। एक घटना में सब निमित्त समवेत हों, यह आवश्यक नहीं। पंच कारण परस्पर प्रतिबंधक नहीं ___ यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या काल आदि कारण परस्पर एक-दूसरे के प्रतिबंधक होते हैं? उदाहरण के लिए क्या नियति पुरुषार्थ का प्रतिबंधक हो सकती है?क्या पुरुषार्थ नियति का प्रतिबंधक हो सकता है? क्या पूर्वकृत कर्म अर्थात् पुरुषार्थ में बाधक बन सकता है? क्या पुरुषार्थ भाग्य को परिवर्तित कर सकता है? क्या पुरुषार्थ द्वारा काल और स्वभाव में प्रतिबंधकता उत्पन्न की जा सकती है। इस प्रकार बहुत से प्रश्न खड़े होते हैं। इन प्रश्नों का एक ही समाधान है कि ये परस्पर प्रतिबंधक प्रतीत होते हैं किन्तु वास्तव में इनका परस्पर समन्वय है। इनके समन्वय से कार्य की सिद्धि होती है। जब तक समन्वय नहीं होता तब तक कार्य की उत्पत्ति में असाधक या प्रतिबंधक कहा जा सकता है। इनकी परस्पर प्रतिबंधकता कहीं कहीं उल्लिखित भी हुई है। जैसे- कहीं जीव कर्म के वश होता है और कहीं कर्म जीव के आधीन होते हैं।९१ यहाँ यह कहा जा सकता है कि जीव का पुरुषार्थ उसकी प्राप्त योग्यता के अनुसार होता है। पूर्वकृत कर्मों के द्वारा उसकी योग्यता का निर्धारण होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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