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________________ प्रथम अध्याय जैनदर्शन में कारणवाद और पंचसमवाय प्रत्येक दर्शन की तत्त्वमीमांसा में कार्य-कारणवाद की चर्चा हुई है। कार्यकारणवाद की चर्चा के बिना कोई भी दर्शन स्थापित नहीं हो सकता । सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम हो, बन्धन या मुक्ति की घटना हो अथवा जीवन के अन्य सामान्य कार्य हों, सभी के संबंध में कार्य - कारण सिद्धान्त को समझना आवश्यक होता है। कार्य-कारण सिद्धान्त विश्व की सभी विद्याओं से जुड़ा हुआ है। विज्ञान, राजनीति, साहित्य, शास्त्र, अर्थशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में कारण- कार्य सिद्धान्त का महत्त्व है। एक चिकित्सा विज्ञानी रोग के कारणों को जानकर रोग से बचने के उपायों का प्रतिपादन कर सकता है। एक सफल राजनेता भी अपनी नीतियों की असफलता के कारणों को जाने बिना सफलता को प्राप्त करने में असमर्थ रहता है। जब तक वह इन कारणों को नहीं समझ पाता है तब तक नीतियों में सुधारात्मक कदम नहीं उठा सकता अर्थात् कार्य-कारणवाद को समझना उसके जीवन में भी आवश्यक है। अर्थशास्त्रकार इस सिद्धान्त को जाने बिना अर्थशास्त्र संबंधी नियमों का प्रतिपादन नहीं कर सकता । कारण- कार्य नियम के माध्यम से अर्थशास्त्री अपने देश की आर्थिक प्रगति नहीं होने के कारणों को जानकर उसके निवारणार्थ उपाय खोज सकता है। विज्ञान का कोई भी क्षेत्र हो चाहे जीवन विज्ञान हो या रसायन विज्ञान या भौतिक विज्ञान या कम्प्यूटर, सभी का आधार कार्य-कारणवाद है। समाजशास्त्र भी कारणवाद के सिद्धान्त को लेकर चलता है तभी समाज में होने वाली समस्याओं का हल हो पाता है । साहित्य - शास्त्र में रस की निष्पत्ति रूप कार्य के लिए विभाव, अनुभाव और संचारी भावों को कारण स्वीकार किया गया है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी दुःख के कारणों को जानकर उनका निवारण किया जाता है। इस प्रकार कारण-कार्यवाद जीवन के प्रत्येक पक्ष से सम्बद्ध है। । यह भूतकाल की उपलब्धि - अनुपलब्धि की समीक्षा में तथा भावी योजनाओं को मूर्तरूप प्रदान करने में सहायक बनता है। कारण-कार्य का लक्षण कारण शब्द 'कृ' धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय लगकर निष्पन्न होता है और कृ धातु क्रियार्थक है। अत: क्रिया के कारक 'कारण' कहलाते हैं। कारण कार्य का नियामक हेतु होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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