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________________ ५५२ जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण ६. दुखम-दुखम :- आयु क्रम घटते २० वर्ष की और शरीर की ऊँचाई सिर्फ एक हाथ की रह जाती है। रात्रि में शीत और दिन में ताप अत्यन्त प्रबल होता है। इस कारण वे मनुष्य बिलों से बाहर नहीं निकल सकते। वनस्पति नहीं होने से मांसाहार ही करते हैं। उस काल के मनुष्य दीन, हीन, दुर्बल, दुर्गन्धित, रुग्ण, अपवित्र, नग्न, आचार-विचार से हीन और माता, भगिनी, पुत्री आदि के साथ संगम करने वाले होते हैं। छह वर्ष की स्त्री संतान का प्रसव करती है। महाक्लेशमय वातावरण होता है। धर्म-पुण्य से हीन वे दुःख ही दुःख में अपनी सम्पूर्ण आयु व्यतीत करके नरक एवं तिर्यच गति में जाते हैं। अवसर्पिणी काल के जिन छह आरों का वर्णन किया गया है, वही छह आरे उत्सर्पिणी काल में होते हैं। अन्तर यह है कि उत्सर्पिणी काल में उल्टे क्रम में होते हैं। उत्सर्पिणी काल दुखम-दुखम आरे से आरम्भ होकर सुखम पर समाप्त होता है।" जैनदर्शन में स्वभाव की कारणता षड्दव्यों का अपना स्वभाव सूत्रकृतांग की टीका में कहा गया है- “सर्वे भावा स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिताः ८ अर्थात् सभी पदार्थ स्वभाव से अपने स्वभाव में व्यवस्थित हैं। षड्द्रव्यों का अपना स्वभाव है। 'स्वो भावः स्वभावः' व्युत्पत्ति के अनुसार जीवअजीव, भव्यत्व- अभव्यत्व, मूर्तत्व-अमूर्तत्व अपने स्वरूप में ही होते हैं तथा धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल का भी अपना स्वभाव है। धर्म का गति, अधर्म का स्थिति, आकाश का अवगाहना और काल का परत्व-अपरत्व आदि स्वरूप भी स्वाभाविक है। गति, स्थिति, अवगाहना, परत्व-अपरत्व आदि कार्यों में षड्द्रव्यों का स्वभाव हेतु होने से जैनागमों से 'स्वभाव' कारण रूप में स्वत: सिद्ध होता है। . उत्पादव्ययधौव्यात्मकता : स्वभाव जैन दार्शनिकों ने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता को वस्तु का स्वभाव स्वीकार किया है। कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि स्थिति, उत्पाद और नाश पदार्थ का स्वभाव है'दव्वस्स जो हि परिणामो अत्थेसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो प्रवचनसार की टीका में अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं- 'न खलु दव्यैर्दव्यान्तराणामारंभः सर्वदव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् २० सभी पदार्थ द्रव्य, गुण और पर्यायमय हैं। इनका स्वरूप त्रिकालाबाधित और शाश्वत है। जैसा कि प्रवचनसार में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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