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________________ Iviii ५४९ ५४९ ५४९ ५५० ५५१ ५५२ ५५२ ५५३ ५५३ ५५३ ५५४ काल की बहिरंग कारणता वर्तना का कारण आकाश नहीं, काल है काललब्धि के रूप में काल की कारणता • अबाधा काल के रूप में काल की कारणता विभिन्न आरकों का प्रभाव » जैनदर्शन में स्वभाव की कारणता • षड्द्रव्यों का अपना स्वभाव • उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता : स्वभाव • विरसा परिणमन में स्वभाव की कारणता • जीव का अनादि पारिणामिक भाव : स्वभाव - • अष्ट कर्मों में स्वभाव की कारणता जैनदर्शन में नियति की कारणता • कालचक्र में नियति की कारणता तीर्थकरों में नियति काल एवं क्षेत्र में नियति. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में नियति पोषक तत्त्व • सिद्धों में नियति • ६३ शलाका पुरुषों में नियति • कर्मसिद्धान्त में नियति • केवलज्ञान सहित दश बोलों का विच्छेद नियति की साधारण धारणाएँ » जैनदर्शन में पूर्वकृत कर्म की कारणता • अष्टविध कर्मों का प्रभाव • तीर्थकर बनना भी पूर्वकृत कर्म का परिणाम • कर्म की कारणता का विशद प्रतिपादन ५५४ ५५६ ५५६ ५५६ ५५७ ५५७ ५५८ ५५९ ५५९ ५६० ५६१ ५६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002509
Book TitleJain Darshan me Karan Karya Vyavastha Ek Samanvayatmak Drushtikon
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShweta Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2007
Total Pages718
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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