________________
५२० जैनदर्शन में कारण-कार्य व्यवस्था : एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण
द्वारा प्रेरित होकर। यदि वह स्वतः दूसरों को अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त करता है तो दूसरे भी उसी प्रकार स्वतः अपनी क्रियाओं में प्रवृत्त हो जायेंगे। बीच में ईश्वर की परिकल्पना करने से क्या लाभ? यदि ईश्वर दूसरे के द्वारा प्रेरित होकर क्रियाओं का प्रवर्तक होता है तो वह दूसरा भी किसी अन्य से प्रेरित होगा और इस प्रकार अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाएगा। जीव के प्राक्तन शुभाशुभ कर्मों के फल प्रदाता के रूप में ईश्वर को मानने की आवश्यकता नहीं है। कर्मों की अनादि हेतु परम्परा से फल प्राप्ति स्वतः
हो जायेगी। ३. जगत् की विचित्रता से ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती। ईश्वर जब एक ही
है तो समस्त जगत् का उससे एकत्व हो जाएगा। फिर कौन किसके द्वारा
प्रतिपादित किया जायेगा? ४. अभयदेवसूरि ने सन्मति तर्क की टीका में पुरुषवाद के खण्डन में जो तर्क
दिए हैं उन्हीं से ईश्वरवाद का भी खण्डन हो जाता है, यथा- १. जीवों पर अनुग्रह के लिए सृष्टि की रचना युक्तिसंगत नहीं। २. ईश्वर के द्वारा जगत् की उत्पत्ति न युगपत् हो सकती है और न क्रम से। ३. क्रीड़ा मात्र को ही जगत् की उत्पत्ति में कारण नहीं माना जा सकता। प्रभाचन्द्राचार्य ने ईश्वरवादियों के तर्क एवं प्रतितों को उपस्थित कर उनका युक्तिसंगत प्रत्यवस्थान किया है। मल्लिषेण सूरि ने स्याद्वादमंजरी में ईश्वर की जगत्कर्तृता का व्यवस्थित निरसन किया है। हेमचन्द्रसूरि ने ईश्वरवाद का उपस्थापन अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका में किया हैकर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः।
इमाः कुहेवाकविडम्बानाः स्युस्तेषां न योषामनुशासकस्त्वम्।।२९९
मल्लिषेणसूरि ने इसकी टीका स्याद्वादमंजरी में ईश्वरवाद का सम्यक् उपस्थापन किया है और निरसन भी । उनके कतिपय तर्क इस प्रकार हैं१. ईश्वर ने शरीर धारण करके जगत् को बनाया है तो वह दृश्य था या अदृश्य।
यदि वह शरीर हमारे शरीर की तरह दृश्य था तो इसमें प्रत्यक्ष से बाधा आती है। यदि वह माहात्म्य विशेष के कारण अदृश्य शरीर वाला है तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org